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नाट्योत्पत्ति सम्बन्धी जैन परम्परा
0 श्री कपूरचन्द जैन, खतौली
भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्मत मे काव्य के दो भेद केवल द्विजातियो की ईा सम्पत्ति न हो अपितु शूद्र भी किये गये हैं। पहला श्रव्य काव्य जिसे पढ़ने अथवा मुनने जिसके अभागी हो सके। ब्रह्मा ने देवताओं की प्रार्थना से पाठको तथा श्रोताग्रो के हृदय में प्रानन्दानुभूति होती मनकः ऋग्वेद से पाव्य (संवाद) सामदेव से गीत यजुर्वेद हैं। दूसरा दृश्य काव्य' जिसमे श्रवणातिरिक्त पात्रो का से अभिनय मोर अथर्ववेद से रस ग्रहण कर पंचम वेद का अभिनय, उनकी वेषभूषा, प्राकृति, भाव भंगिमा प्रादि नाट्यवेद की रचना की। के द्वारा सहृदय सामाजिको के हृदय मे पानंद का संचार रचनान्तर देव वास्तुशिल्पी विश्वकर्मा को प्रेक्षागृह के होता है। चूंकि दृश्य प्रभिनेय होता है। पौर उसमे निर्माग को तथा भरत को अपने शतपुत्रों के साथ उसमे प्राचीन या काल्पनिक रागादि का नटादि पर प्रारोप अभि य की प्राना दी। पाशतोष भगवान शकर ने रोद्र किया जाता है प्रतः उसे रूपक कहा जाता है 'रूपा- व्यजक ताण्डव तथा पार्वती ने सूकूमार एव शृंगारिक रोपात्तुरूपकम्' रूपक क नाटक प्रकरण प्रादि लास्य नत्य द्वारा इस नाट्य मे योगदान किया और सर्वप्रमुखतः दस भेद है। किन्तु रूपक का प्रथम और प्रथम ब्रह्मा द्वारा निर्मित 'अमृतमन्थन' समवकार एव प्रमुख भेद होने के कारण सम्प्रति रूपक का स्थान नाटक त्रिपुर हाह' बामक डिम को प्रस्तुत किया। ने ले लिया है और सामान्यत. दृश्य काव्य नाटक--
नाट्य के भूतल पर स्थानान्तरित होने के सम्बन्ध में वाध्य हो गया है। प्रस्तुत निबन्ध मे भी रूपक के स्थान
दो कथाय भी नाट्यशास्त्र के प्रतिम अध्याय मे दी गई पर नाटक शब्द का प्रयोग किया गया है।
है तदनुमार भरतपुत्रो को अपने नाट्य प्रयोग पर अभिमान नाटक का उदभव कब हुमा इम सम्बन्ध मे न केवल हो गया और एक बार उन्होने मुनियो के माक्षेपपूर्ण व्यग्य भारतीय अपितु पाश्चात्य विचारको ने भी भरपूर गवेषणा का अभिनय किया जिससे क्रुद्ध हो मुनियो ने शाप दिया की है। भारतीय परम्परानुसार विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान, कि ऐमा नाट्य समाप्त हो जाये भोर भरत पुत्र शूद्र हो विज्ञान, कला, कौशल के उत्पत्ति स्थान वेद है। नाटको जायें। देवों के प्रार्थना करने पर मनियो ने शाप मे की उत्पत्ति भी वेदो से हुई इसी कारण उसे 'चतुर्वेदाग- सशोधन किया कि नाट्यविद्या नष्ट तो नही होगी किन्तु सम्भवम्' कहा जाता है। पाद्य कव्याचार्य भरतमनिप्रणीत ___ भरत पुत्रो को शूद्र अवश्य होना पड़ेगा। शास्त्र के नाट्शास्त्रानुसार-देवतामो ने जगत पिता ब्रह्मा के पास चरितार्थ होने में दूसरी कथा दी गयी है। तदनुसार जब जाकर उनसे ऐसी वस्तु के निर्माण की प्रार्थना की जो इन्द्र का पद सम्राट नहष को मिला तो भरत पुत्रो का कानों तथा नत्रो को समान रूप से भानन्द दे सका। जो अभिनय देखकर नहष न भूलोक पर अपने घर मे वह! १,२. दृश्यश्रव्यत्वभेदन पुनः काव्यं द्विधा मतम् । ४. नाट्य शास्त्र १/१६ दृश्य तत्राभिनेय तदरूपारोपान्तुरूपकम् ।।
विश्वनाथ साहित्यदर्पण ६.१ ३. नाटकमयप्रकरणं भाणण्यायोगसमवकारडिमाः।
५. वही १/४-१७ ईहामृगायोप्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥
साहित्यदर्पण ६/३