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________________ विक, बोरसपानवाइमय में सत्य का स्वरूप सत्य की महिमा का वर्णन करते हुए वैदिक वाङ- सम्बन्ध में 'भंगत्तर निकाय' में स्पष्ट कहा कि 'हे पुरुष मय में स्पष्ट उल्लेख है कि सत्य स्वर्ग का सोपान है। तेरी प्रास्मा तो जानती है कि क्या सत्य है और क्या सत्य का पाचरण करने वाला प्राणी स्वर्ग-लोक से च्यूत प्रसत्य है । प्रतः पाप करने वाले के लिए एकान्तगुप्त नहीं होता है। वास्तव में देवत्व की मोर जाने वाला (छिपाव) जैसी कोई स्थिति नहीं है। रागादि पाप कर्म मार्ग ही सत्य से बना है। सत्य के प्राचार पर ही हटते ही प्राणी सत्य तक पहुंच जाता है। रागासक्त प्राणी प्राकाश टिका है, समग्र संसार और प्राणीगण सत्य के ही प्रबोध में रहता है। सोचने समझने की शक्ति उसमें प्रायः माश्रित हैं। सत्य से ही दिन प्रकाशित होते हैं, सूर्य उदय समाप्त सो हो जाती है। ऐसे प्राणी सत्य का केवल एक होता है तथा जल भी निरन्तर प्रवाहित रहता है। ही पहल देख पाते है। उनका दृष्टिकोण सर्वागीण नहीं लोक में सत्य के द्वारा ही साक्षी को पवित्र किया जाता है। होता। वे अपने विचारो के पतिरिक्त दूसरोके विचारों सत्य से ही धर्म की अभिवृद्धि भी हुमा करती है। प्रतः को प्रसत्य मानते है। जबकि बुद्ध-मान्यता है कि न सत्य सत्य सर्व प्रकार से कल्याणकारी है जिस प्रकार वृक्ष मूल अनेक है और न एक दूसरे से पथक है ।" सत्य तो वस्तुतः (जड़) के उखड जाने से सूख जाता है और अन्ततः नष्ट एक ही है।" उसका रस सब रसों से श्रेष्ठ है।" सत्य हो जाता है उसी प्रकार असत्य बोलने वाला व्यक्ति भी द्वारा प्राणी सहज मे ही जन-जन में समाहित हो जाता है। अपने पाप को उखाड़ देता है, जन समाज में प्रतिष्ठाहीन सत्यवादी को यश कीर्ति दिग-दिगन्त फैलती जाती है।" हो जाता है। निन्दित होने से सूख जाता है - श्रीहीन हो जबकि प्रसत्यवादी नरकोन्मुखी होता है। इतना ही नहीं जाता है और मन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जो करके-- नही किया- ऐसा कहने बाला भो नरक में जाता है। जाता है।" यह शाश्वत धर्म है कि सत्य वचन ही अमृत बौद्धधारा के प्रवर्तक भ. गौतम बुद्ध ने भी सत्य के बचन है । १५ १. 'सत्यं स्वर्गस्य सोपानाम् ।' ७. 'नत्यिलोके रहोनाम, पापकम्मं पकुम्वतो । -महाभारत, प्रादिपर्व, सर्ग ७४, श्लोक १०५ मन्ता ते पुरिस जानाति सच्च वा यदि वापुसा ।' २. 'सत्यं परं, परं सत्य, सत्येन न सुवर्गाल्लोकाच्च्य --अगुतर निकाय ३।४।१० वन्ते कदाचन ।' ८. रागस्ता न दक्खति, तमोखधेन भावुटा।' -ततिरीय पारण्डयक,नरागणोपनिषद् १०१६२ -दीघनिकाय, २०१६ ३. 'सत्येन पन्था विततो देवयानः।' ९. 'एकङ्गदस्सी दुम्मेधो, सतदस्सी च पण्डितो।' -मुद्रक उपनिषद्, मण्डक ३, खण्ड १, इलोक ६ --थेरगाथा, ११०६. ४. 'सामासस्योक्तः परिपातु विश्वतो, द्यावाचयनतन्न १०. न हेव सच्चा नि बहूनि नाना।' हानि च । -महानि मपालि, ११२।१२।१२१ विश्वमन्यन्निविशतेयदेजति, विश्वाहाथो विशाहो देति सूर्यः ।" ११. 'एक हि सच्च न दुतिय मस्थि ।' -ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त ३७, मन्त २. -सुत्तनिपात, ४१५०७ ५. "सस्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते ।" १२. 'सच्च हवे सादुतर रसाने।' -सुत्तनिपात १।१०:२. __ - मनुस्मृति, अध्याय ८, श्लोक ८३. १३. 'सच्चेन किति पप्पोति ।' --सुत्तनिपात १।१०७. ६. "पचाक्षः माविलः शुष्यति स उदवर्तते, एवमेवानत 'प्रभूतवादो निरय उपेति, योवाविकस्वा न करोबदन्नामलमात्मानं करोति, सथुष्यति, सउवर्तते, तस्मादनतं न वदेत् ।" मोति नाह। -सुतनिपात, ३३६॥५. -ऐतरेय मारण्यक, प्रारण्यक २, अध्याय ३, १४ सच्चं वे प्रमतावाचा, एस धम्मो सनन्तनो।' -सुत्तनिपात, ३३२९।४.
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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