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________________ वैदिक बौद्ध तथा जैन वाङ्मय में सत्य का स्वरूप - श्री राजीव प्रचंडिया, अलीगढ़ वैदिक, बौद्ध तथा जैन बाहमय मिलकर भारतीय हटते ही सत्य उद्घाटित हमा करता है। प्रज्ञान पोर वाहमय का रूप स्थिर करते हैं । वैदिक वाङ्मय में वेद- माया का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है । मज्ञान में सस्य प्रछन्न पाणी, बौद्ध साहित्य में भ० गौतम बुद्ध के सिद्धान्त, उप- रहा करता है । जो ज्ञान से प्राप्लावित है वह निश्चय ही देश, तथा शिक्षात्मक निर्देश पोर जैन मागम में तीर्थ- सत्य से प्रभावित होता है। वास्तव में ज्ञानी सदा सत्य. पुरों की दिव्य वाणी के प्रभिदर्शन होते हैं । वेद, उपनिषद् वादी होता है। ज्ञान-शक्ति सत्य को प्रेरित एवं उद्रामायण, महाभारत, गीता प्रादि वैदिक ग्रन्ध, त्रिपिटक घाटित किया करती है और बुद्धिशील प्राणियों को अर्थात् सुत्तपिटक, विनमयपिटक तथा अभिधम्मपिटक बौद्ध यथावसर योग्य कर्मो की चेतना भी देती है। ज्ञान-प्रभाव साहित्य तथा जैन पागम में तिलोयपण्णति, तत्वार्थसूत्र, में सत्य की अपेक्षा भाग्रह की प्रधानता रहती है। प्राग्रही सूत्रकृतांग, स्थानाङ्गसूत्र, दशवकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र प्रति प्रज्ञानी सत्य को समझने-पहिचानने में प्रायः मूलाचार, अमितगतिश्रावकाचार, प्रष्टपाहुड़, भगवतो असमर्थ होते हैं। उनकी दृष्टि प्रज्ञान के प्रभाव में स्थल माराधना, प्रनगार तथा सागरधर्मामृत प्रादि ग्रन्थ मान्य रहती है । प्रज्ञान शक्ति के माध्यम से हो सत्य को विभिन्न हैं जिनके द्वारा भारतीय जीवन-दर्शन, पाचार-विचार, रूपों मे अभिव्यक्त किया जाता है। वस्तुतः सत्य तो एक धमं साधना-पाराधना तथा ज्ञान-विज्ञान मादि उपयोगी ही है। वह एक मात्र ब्रह्म है।' इन्द्र है। सत्य में ही मौर कल्याणकारी बातों का सम्यक परिचय मिलता है। धर्म निवास करता है। सत्य ही सब पच्छाइयों की जढ़ वैदिक, बौद्ध तथा जैन बाङ्मय मे व्यवहृत सत्य के है तथा सत्य से बढ़कर संसार में और कुछ नहीं है। सत्य स्वरूपका विवेचन करना हमारा यहा मूलाभिप्रेत है। से प्राणी सबके ऊपर तपता है तथा ज्ञान से मनुष्य नीचे वैदिक वाङमय में सत्य के स्वरूप को स्थिर करते देखता है तथा नम्र होकर चलता है। सत्य की प्रतिष्ठा हए कहा गया है कि मन, वाणी और कर्म की प्रमायिकता पर सत्यवादी का वचन क्रिया फलाश्रयत्व गुण से युक्त एवं प्रकृटिलता का नाम ही सत्य है।' ज्ञानप्रकाश में हो जाता है अर्थात सत्य प्रतिष्ठित व्यक्ति के वचन प्रमोष मायादि सशक्त शत्रुओं को कटना-छंटना होता है। इनके होते है।" १- सत्यमिति प्रमायिता, प्रकोटिल्यं वाङ्मनः कायानाम् ६. 'सत्यमेव ब्रह्म'। -शतपथ ब्राह्मण, काण्ड २, -केन उपनिषद्, शांकरभाष्य, ४८ मध्याय १, ब्राह्मण ४, कण्डिका ४. २. 'नाऽविजानन सत्यं वदति, विजान्नेव सत्यं वदति ।' ७. 'सत्यं हि इन्द्रः'। -शायायन मारण्यक, -छान्दोग्य उपनिषद्, प्रपाठक ७, खण्ड १७, अध्याय ५, कण्डिका १. ८. 'सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्मः सदाश्रितः । ३. 'चोदमिती सून्तानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।' सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥' -ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ३ मन्त ११. -वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग ११०, ४. 'नावगतो उपरुध्यते, मापदों उ वगछति ।' श्लोक १३. -ताण्डय महा ब्राह्मण, अध्याय २, वण १ . सत्येनोवस्तपति, ब्रह्मणाडवाङ् विपश्यति।' कण्डिका ४. --अथर्ववेद, काण्ड १०, सूक्त ८, मन्त्र १६. ५. 'एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' । १०. 'सत्य प्रतिष्ठाया क्रियाफलाश्रयत्वम् ।' -ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त १६४, मन्त्र ४६. -योगदर्शन २३६.
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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