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४ वर्ष ३३, कि
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अनेकान्त
जैन मागम में सत्य विषय पर विषद चर्चा की गई व्यक्ति या पदार्थ का कोई नाम रख लेना 'नाम सत्य है। है। पार्षग्रन्थ 'मूलाचार' मे स्पष्ट उल्लेख है कि राग, उदाहरणार्थ कुल को वृद्धि न होने पर भी कुलबर्द्धन नाम द्वेष, मोह के कारण असत्यवचन तथा दूसरों को सनाप रखा । पुदगल के रूप प्रादि अनेक गुणों में रूप को मान्यता करने वाले ऐसे सत्यवचन को छोड़ना मोर द्वादशांग क से जो वचन कहा जाय, उसे 'रूप सत्य' कहा जाता है। अर्थ कहने मे अपेक्षा रहित वचन को छोड़ना सत्य कहलाता उदाहरणार्थ केवल रूप प्राधार से कहना कि बगुला की है। अर्थात् हास्य, भय, कोष तथा लोभ से मन-वचन- पंकि सफेद होती है। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय कायकर किसी समय मे भी विश्वास- घातर, दूसरे को सो वह 'प्रतीत्य सत्य' है। उदाहरणार्थ 'यह दीर्घ है' यहाँ पीडाकारक बचन न वोलना ही सत्य है।' सत्य का सीधा हस्व की अपेक्षा से प्रतीत्य सत्य है । व्यवहार में प्रचलित सम्बन्ध चारित्र की शुचिता से हुप्रा करता है । जो कुछ अर्थ की अपेक्षा से जो वचन बोला जाय, वह व्यवहार कहा जाय चाहे वह सत्य हो या प्रसत्य-चारित्र की उससे सत्य' है। उदाहरणार्थ-लोक मे 'भात पकता है। ऐसा यदि शुद्धि होती है तो निश्चय ही वह सत्य है तथा जिस वचन व्यवहार सत्य है। इच्छानुसार कार्य कर सकना कथन से चारित्र की शुद्धि नहीं होती-- चाहे वह सत्य हो 'सम्भावना सत्य' है। उदाहरणार्थ-इन्द्र इच्छा करें तो क्यों न हो, प्रसत्य ही होता है। जैनाचार्यों ने तो सत्य जम्बूद्वीप को उलट सकते है । हिंसादि दोष रहित प्रयोग्य के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उसे दस वचन का प्रयोग 'भावसत्य' की कोटि मे पाता है। उदाहभागों में विभाजित किया है। यथा-जनपद, सम्मति, रणार्थ-किसी ने पूछा कि चोर देखा, उसने कहा कि नही स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, सम्भावना, व्यवहार, भाव देखा, यह भाव सत्य है। उपमामय वचन 'उपमा सत्य' तथा उपमा सत्य ।' जिस देश के लिए जो शब्द जिस कहलाता है। उदाहरणार्थ-पल्योम सागरोपम मादि। पर्थ मे रूढ होता है, उस देश में उस प्रथं के लिए उमी पल्योपम काल मे पल्य शब्द गड्डे का वाचक है। काल शब्द का प्रयोग करना 'देशसत्य' या 'जनपद सत्य' को गड्डे की उपमा देकर बताया गया कि एक योजन कहलाता है। उदाहरणार्थ-विभिन्न प्रान्तीय भाषाप्रो म लम्बे-चौड़े यौगिलिकों के बालों से साठस भरे हुए गड्डे चावल या भात के नाम पथक-पथक बोले जाते है। जे के समान काल पल्योपम काल है। इन सब मे अनबद्य चोरु, कल प्रादि। बहजन की सम्मति से जो शब्द जिम सत्य (हिसा रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ होता है। किन्त का वाचक मान लिया जाता है, उसे सम्मति सत्य कहा जनागम में यह भी स्पष्ट है कि यदि कदाचित सत्य वचन जाता है। उदाहरणार्थ-लोक मे राजा की स्त्री को देवी बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन धारण भी किया कामा किसी मति मादि मे किसी व्यक्ति विशेष की कल्पना जा सकता है। मूलरूप मे सत्यवचन वह है जो प्रशस्त. कर लेना 'स्थापना' सत्य' है। उदाहरणार्थ- महन्त का कल्याण कारक, सुनने वाले को माहाद उत्पन्न करने पवाण मे कल्पना करना । गणकी अपेक्षा न रखकर किसी बाला तथा उपकारी हो। किन्तु जो बचन अप्रिय प्रौर
१. मूलाचार, गाथा स० ६,२६०, अनन्तकोतिग्रन्थमाला
वि० सं० १६५६. २. जभास भास तस्य सच्च मोसं वा चस्तिं विसुज्झह,
सम्वा विसा सच्चाभवति । ज पुण भासमाणस्स चरिन न सुज्झति सा मोसा भवति ॥
-दशवकालिकचूणि, अध्ययन ७. ३. 'अणवद संमदिठवणा गामें रूवे पडुच्चववहारे ।
सभावणववहारे भावेणोपम्म सच्चेण ॥" --भगवती माराधना, मूलगाथा स० ११६३,
सखागमदोशी, शोलापुर, सं० ई० १६३५. ४. मूलाचार, गाथा सं० ३०६-३१३, अनन्तकोति
ग्रथ माला, वि० स. १६७६. ५. 'सच्चेसु वा प्रणवज्जं वयंति ।' -सूत्रकृतांग १।६।२३. ६. वक्तव्यंचन मथविध यं धोधनमोनम् ।
-पद्मनम्दि पंचविंशतिका, १६१.