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________________ गरिका पद देने का जो पट्टावली में उल्लेख है, वह साँऽजनि प्रथम एषमपाभिरम्य: या ॥ विचारणीय हो जाता है। पर ऋतु संहार की टीका इति श्री अमरकोसिसूरि कृतायां टीकार्या प्रशस्ति से ऐसा लगता है कि वे वास्तव में मानकी तिमूरि श्री ग्रीष्मऋतु वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ के पट्टधर होंगे। प्रतः हर्पकोति और प्रमरकीति दोनों को नामपुरोयतपागच्छ को २ शाखायें होगई जिनमें से एक साथ या पास-पास में ही प्राचार्य पद भान कीतिसूरि ने पादचन्द्रसरि शाखा में प्रब कोई नहीं है। और इम दिया होगा। हर्षकोसिसूरि तो अपने को चन्द्र कीतिसूरि शाखा के विशेष विवरण वानी पट्रावली भी नहीं मिलती। के शिष्य ही लिखते रहे हैं। प्रतः चन्द्रकीरि के वृद्धा हमें जो एकमात्र पट्टावली मिला है उसमें भी हर्ष कोनि वस्था या स्वर्गवास होने के बाद दीक्षा पद मे बड़े होने के मरि और प्रमर कीर्तिरि के नाम के बाद के नाम नहीं हैं। कारण मानकोतिसूरि को चन्द्र कीति गरि का पट्टधर । इम के बाद भी उनकी परम्परा कुछ बलजी तो रही है। बनाया होगा और हर्षकीतिसूरि उस समय उपाध्याय क्योंकि पाशवचन्द्र मरि शाखा की पट्टावली में बीच में अन्य पद पर होंगे, जब भानकीतिमूरि का स्वर्गवास हो गया उमी परम्परा के प्राचार्य व ममियों के नाम पाये हैं । पर तब एक और चन्द्रकीलिमूरि के प्रधान और विद्वान शिष्य उमसे हर्षकीन परपरा में क्रमशः पट्टधर कौन से हुये ? हर्षकीन मूरि को दमरी और मानकीतिसूरि के शिष्य एवं कब तक इनकी परंपरा चली? यह ज्ञात नहीं होता। अमरकोति को भी प्राचार्य पद दे दिया गया होगा। हपंकीतिसरि के बाद इस शाखा में कोई ऐसा विद्वान नहीं प्रमाणाभाव से वास्तविक स्थिति निश्चयरूप से तो बताई हमा लगता, जिनके रचित ग्रन्थों को प्रशस्तियों से पीछे नही जा सकती पर सम्भावना पौर मेरा अनुमान यही है। को ,रपग को जानकारी मिल सके। अमरीतिसरिकी अमरकी तिमूरि ऋतुसहार की टीका में अपने को भी ऋतुसंहार टोका के पलावा पोर कोई रचना ज्ञात मानकीतिसूरि को पट्टधर ही बतलाते है। यथा --- नहीं है। हर्षकीतिसरि को स्वयं को लिखी हई बहुत-सी श्री मानकीर्तिवरमूरि गुण करुणा प्रतियां प्राप्त है। पनप संस्कृत लाईब्रगे, बीकानेर एव ज्ञानभण्डारों में वे मेरे देखने में पाई है, संभवतः कुछ पट्रेऽणु वं अमरकीति विनिमिता प्रतियां हमारे संग्रहालय या अन्यालय में भी है। श्रीमद्विशेष महान काव्यकृतो, ---नाहटों की गवाह, बीकानेर (पृ० ३० का शेषांश) सिन्धु सस्कृति को प्रकाश में लाने के पूर्व पाश्चात्य पाया है और पनेक शाखा प्रशावापों में विभक्तहमा है। विद्वान भारतीय-सस्कृति के मूल को वेदों में मानते रहे। वेदों में भी हमें यही बात दृष्टिगोचर होती है। प्राचीन परन्तु वे ही मोहन जोदडों और हडप्पा के उत्खनन के बाद जैन और बौद्ध शास्त्रों में प्रमो के विविध प्रवाहों को अपने अभिप्राय को बदनकर वैदिककाल के प्वं मे वेदो सूत्रबद्ध करके श्रमण पौर ब्राह्मण इन दो भागों में विभक्त में भी प्रत्यधिक उजाल एक भारतीय-सात रही है, किए जाने की बात दष्टिगोचर होती है। इनमें ब्राह्मण पमा स्वीकार करने लगे। उधर उपर्युक्त मिन्यु सस्कृति वैदिक-सस्कृति में पोर शेष श्रमण सम्कृति में यभित किए के अवशेष हमें प्राय: उत्तर पश्चिम भारत में दाष्टगोचर गए है। ऋग्वेद १०.१३६.२ में बात रशना मुनियों का होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पाश्चात्य तथा भारतीय उन्नेम्व है। इसका अर्थ नग्नमनि होना है। प्रारण्यक में विद्वान भारतीय धर्मों के इतिहास को नवीन दृष्टि मे तो श्रमण और वातरशना इन दोनों को एक ही प्रर्थ में देखने को तैयार हए हैं। अब अनेक विद्वान जन-धर्म को लिया गया है। उपनिषदों में तापम और श्रमण ये दोनों वैदिक-धर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र धर्म मानकर जैन-घमं एक ही पंक्ति में लिये गये हैं। इन बातों पर सूक्ष्मता से को वैदिक धर्म को शाखा अथवा विरोधो धर्म मानने से विनार करने पर विदित होता है कि श्रमणों को तप भोर स्पष्ट इन्कार करते है। योग अधिक प्रिय थे। ऋग्वेद में कथित यति पोर वात.. वेदों के कथनानुसार इन्द्र ने दास एवं दस्यों की रशना मुनि मी येही मालम होते है। इस दष्टि से भी यति-मुनियो की भी हत्या की थी (अथर्व २.५ ३.) । यति त्या की थी ( २. ५ ल जैन धर्म का सम्बन्ध श्रमण-परम्परा से मिट होता है। और मुनि शब्द को भारत के मूल निवासियों को सस्कृति श्रमण-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा-इन दोनों में का सूचक मानना गलत नही होगा । इन शब्दों का विशेष प्रारम्भ से ही विरोध चला पा रहा था। इन्द्र के द्वारा प्रयोग और प्रतिष्ठा हम जैन-सस्कृति में प्रारम्भ से ही यति और मुनियो की हत्या किया जाना और पातंजलि के स्पष्ट देखते पा रहे हैं। इसलिए जन-धर्म का प्राचीन नाम द्वारा अपने महाभाध्य (५. ४. ६) में श्रमण और ब्राह्मणो यति-धर्म अथवा मुनि-धर्म करने पर विरोध नहीं होगा। के शाश्वन विरोध का उल्लेख किया जाना --ये दोनों यति पोर मनिधर्म दीर्घकाल से हो प्रभावित होता हुमा बाते इसके सुदृढ़ प्रमाण है। 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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