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________________ अनेकान्त प्रनादिनिधनं विष्णुं सबलोकमहेश्वरम् । व्यक्ति, एक साहित्य, एक संस्कृति अपने प्रभ्य समीपस्थ लोकाप्यक्षं स्तवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ धर्म, व्यक्ति, साहित्य पोर संस्कृति से प्रभावित हुये बिना जिन सहस्रनाम की प्रस्तावना में कहा गया है कि नहीं रह सकती है। फिर यह तो भाषा है। जिनेन्द्र भगवान वीतराग, क्षायिक सम्यकदृष्टि हैं । पाप नामावली की समानता के सूचक कतिपय उदाहरण मजर पोर प्रमर, अजन्म भोर मचल तथा अविनाशी है, यहाँ सतकं, सजग होकर देखें। प्रत्येक उदाहरण में प्रथम प्रतः प्रापके लिये नमस्कार है। पापके नाम का स्मरण पंक्ति विष्णुसहस्रनाम की है और द्वितीय तृतीय पंक्ति करने मात्र से हम सभी परम शान्ति और प्रतीत सुख- जिनसहस्रनाम की है। भगवान के नामों के प्राधार पर सन्तोष तथा समृिद्ध को प्राप्त होते हैं। आपके अनन्त भक्तों में भावनात्मक एकता की अभिवद्धि की बात भी गुण हैं : देश और काल को दृष्टि में रखते हये निस्संकोच कही जा प्रजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते प्रतीतजन्मने । सकती है। प्रमत्यवे नमस्तुभ्यं प्रचलायाक्षरात्मने । (१) स्वयम्भू शम्भुरादित्य: पुष्पकराक्षो महास्वनः । अलमास्ता गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणा । श्रीमान् स्वयम्भू वृषभूः सम्भवः शम्भुरात्मन: । स्वन्नाम स्मतिमात्रेण परमं श प्रशास्महे ।। (२) अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । विष्णसहस्रनाम के समापन में कहा गया है कि जो स्तवना हषोकेशो जितेन्द्रियः कृतक्रिय. ॥ पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो, वह भगवान् (३) अनिविष्णः स्थविष्ठोऽमघंमयूपो महामखः । व्यास द्वारा कहे गये विष्णसहस्रनाम स्तोत्र का प्रतिदिन बर्मयूपो बयारागो धर्मनेमिर्मनीश्वरः ।। पाठ करे: (४) अनन्तगणोऽनन्तश्रीजितमन्यर्भयापहः इमं स्तवं भगवतो विष्णोयासेन कीतितम् । जितकोषो जितामित्रो जितक्लेको जितान्तकः । पठेत् य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च।। मनोहरो जितकोषो वीरबाहविवारण: जिनसहस्रनाम के समापन में भी प्राचार्य जिनसेन ने (५) श्रीवः शोश: श्रीनिवासः श्रीनिषिः श्रीविभावनः । लिखा है कि इस स्तोत्र का प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक पाठ करने श्रीनिवासश्चतुर्वपत्रः चतुरास्यः चतुर्मुखः।। वाला भक्त पवित्र भौर कल्याण का पात्र होता है । विष्णु- प्रबुद्ध पाठक देखेंगे कि पांचवें उदाहरण की प्रथम सहस्र नाम स्तोत्र का समापन अनुष्टुप् छन्द मे ही हुमा पंक्ति मोर चतुर्थ उदाहरण की द्वितीय पक्ति पढ़ते हये है। दोनो ही स्तोत्र सार्थ मिलते है, प्रतएव संस्कृतविद् लगता है कि एक ही पोशाक मे सड़क पर दो विद्यालयो सधी पाठक ही नहीं, अपितु हिन्दी भाषी भी दोनो स्तोत्रों के विद्यार्थी जा रहे हैं पीर साहित्य की दष्टि से अनुप्रास का प्रानन्द ले सकते हैं। अलङ्कार तो सुस्पष्ट है ही। समानता, असमानता एवं कलात्मकता विष्णुसहस्रनाम को नामावली में विभाजन नहीं है, दोनों सहस्रनामों में जहाँ कुछ समानता और प्रसमा- पर जिनसहस्रनाम को नामावली दस विभागों में विभाजित नता है, वहां कुछ कलात्मक न्यूनाधिकता भी है। यह है। विष्णुसहस्रनामकार ने शायद इसलिये विभाजन नही उनके रचयितामों की अभिरुचि है, पर दोनों की भगवद्- नहीं किया कि विष्णु के सभी नाम पृथक्-पृथक् हैं ही, भक्ति मनन्य निष्ठा की अभिव्यक्ति करती है। स्थविष्ठ, परन्तु जिन सहननामकार ने शायद इसलिये सौ-सौ नामों स्वयंभू, सम्भव, पुण्डरीकाक्ष, सुव्रत, हृषीकेश, शंकर, घाता, का विभाजन कर दिया कि जिमसे श्लोक पाठ से थकी हिरण्यगर्भ, सहस्रशीर्ष, घमंयूप जैसे शब्द दोनों स्तोत्रो में जनता को जिह्वा को कुछ विश्राम मिले और मध्यं चढ़ाने मिलते है । देवतागों की नामावली में ऐसे शब्द पा जाना में भी यस्किचित् सुखानुभूति हो। अस्वाभाविक नही है। कारण, एक तो प्रत्येक भाषा के हिन्दू धर्म की एक प्रमुख विशेषता समाहार शक्ति भी अपने शब्दकोष की सीमा है और दूसरे एक धर्म, एक है। उसमें एक ईश्वर के तीन रूप-ब्रह्मा, विष्णु महेश की
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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