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________________ विष्णुसहस्रनाम और बिनसहस्रनाम शक्ति में हैं प्रोर विष्णु भगवान के चौबीस भवतार भी हैं। इनमें ऋषभदेव भोर बुद्ध भी हैं। इसी उदात्त भावना का सूचक विष्णु सहस्र नाम का निम्नलिखित श्लोक है जिसमें अनेक लोगों का एकत्रीकरण या पुण्यस्मरण किया। गया है : चतुर्मूतिश्चतुर्वाश्चतुर्व्यूहइचतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदः विवेकवान् ॥ इस श्लोक मे राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, वासुदेव, सकर्षण, प्रद्युम्न तथा प्रनिरुद्ध को जहाँ स्मरण किया, वहाँ सालोक, सामीप्य, सायुज्य सारूप्य गति के साथ मन, बुद्धि हकार धौर चित्त को भी दृष्टि मे रखा तथा धर्म, पर्थ काम और मोक्षपुरुषार्थी के साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद को भी नहीं भुलाया । यह श्लोक मनुप्रास अलंकार का भी ज्वलन्त निदर्शन है। } बब हस्कृशः स्थूलो गुणभून्निर्गुणो महान् । प्रभूतः स्वतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ प्रणु, बृहत् कृश, स्थूल, गुणभूत, निर्गुण, भघृत, स्वघुत जैसे विरोधी सार्थक शब्दों को अपने में समेटे हुये यह श्लोक विरोधाभास अलंकार प्रस्तुत कर रहा है, यह कौन नही कहेगा ? विष्णु सहस्रनाम में तीर्थकर, श्रमण, वृषभ, वर्धमान शब्दो का प्रयोग हिन्दी और जैन विद्वानों के लिये विशेषता दर्शनीय, पठनीय और चिन्तनीय है : वृषाही वृषभो विष्णुवृषपर्वा वृषोदरः । वर्धनां वर्ष मानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः । मनोजवस्तोथंकरो वसुरेता वसुप्रवः प्राश्रमः धमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ जिनसहस्रनाम स्तोत्र में स्थविष्ठादिशतकं का चतुर्थ लोक पुनः पुनः पठनीय है। इसमें भगवान जिनेन्द्र का गुणगान करते हुये कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव पृथ्वी से क्षमावान है, सलिल से शीतल हैं, वायु से अपरिग्रही हैं, और अग्निशिखा सदृश ऊर्ध्वधर्म को धारण करने वाले हैं। सुप्रसिद्ध उपमानों से अपने प्राराध्य उपमेय की afrofen की यह विशिष्ट शैली किसके हृदय को स्पर्श नहीं करेगी ? शान्तिर्मा पृथ्वी मूर्तिः शान्तिर्मा सलिलात्मकः । बायूमूर्तिरसंगात्मा मूर्तिश्वधृक् ।। ६३ इसी प्रकार श्रीवृक्षादिशतं के प्राठों से ग्यारहवें लोकों में और महामुन्यादिशत्त के प्रारम्भिक छह श्लोकों में कवि कुल भूषण जिनसेन ने 'म' वर्ण के शब्दों की झड़ी लगा कर प्रबुद्ध पाठकों को भी चमत्कृत कर दिया है । उदाहरणस्वरूप महामुनि तीर्थंकर विषयक निम्नलिखित श्लोक देखिये, जो अनुप्रास अलंकार का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है : महामुनिर्महामोनी महाध्यानी महावमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥ जिनसहस्रनाम स्तोत्र में जितने भी इलोक है, वे जिनके ही विषय में है, उनमें योगमूलक निवृत्ति है भोगमूलक वह लोक प्रवृत्ति नहीं हैं जो विष्णुसहस्रनाम के पुष्यहस, ब्राह्मणप्रिय जैसे शब्दो के प्रयोग में है । दिग्वासादिशत का प्रथम श्लोक जिनचर्या का एक उत्कृष्ट उदाहरण है : दिग्वासा वातरशनो निर्गन्धो निरम्बरः । fafonest निराशसो ज्ञानचक्षुर मोमुहः ॥ दिशायें जिनके वस्त्र है और जिनका हवा भोजन है, जो बाहर भीतर की ग्रन्थियो (मनोविकारों) से रहित है, स्वयं प्रात्मा के वैभव सम्पन्न होने से ईश्वर है और वस्त्रविहीन है, अभिलाषाम्रो और श्राकाक्षाओ से रहित हैं, ज्ञानरूपी नयनवाले है घोर अमावस्या के अन्धकार सदृश प्रज्ञान- मिथ्यात्व दुराचार से दूर है, ऐसे जिन ज्ञानाब्धि, शीलसागर, ममलज्योति तथा महाभ्यकारभेदक भी हैं । जिन सहस्रनाम में ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, ब्रह्मयोनि, प्रभविष्णु, प्रच्युत, हिरण्यगर्भ, श्रीगर्भ, पद्मयोनि जैसे नाम भी जिन (जितेन्द्रिय) के बतलाए गये है । जिनसहस्रनाम में जिनको प्रणवः, प्रणयः, प्राणदः, प्रणतेश्वरः " कहा गया है। इसके अनुरूप ही विष्णु सहस्रनाम में "वैकुण्ठः पुरुषः, प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः " कहा गया है । जिनसह नाम स्तोत्र में जहाँ "प्रधानात्मा प्रकृतिः परम:, परमोदयः" कहा गया है, वह विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र में जहाँ "प्रधानात्मा प्रकृतिः, परमः परमोदय: " गया है, वहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र म " योगायोगविदा नेता प्रधानपुरुषेश्वरः " कहा गया है। जिनसहस्रनाम में कहा
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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