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________________ ८४ वर्ष ३३, ०४ "सदागतिः, सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्यपरायणः " कहा गया। “सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः " भी कहा गया है । इस प्रकार दोनों स्तोत्रो के शब्दो, प्रथ प्रोर भावो में पर्याप्त साम्य उपलब्ध होता है और यह सकुचित स्वार्थ पर प्राधारित साम्प्रदायिक व्यामोह से ऊपर उठ कर भावनात्मक एकता और धार्मिक सहिष्णुता की ओर इंगित करता है । धर्म की धरा पर जाति का नही, गुण और कर्म का ही महत्त्व | जैनधर्म के प्रचारक तीथकर जैन (वैश्य) नहीं, अपितु क्षत्रिय ही थे । अन्यभक्ति निष्ठा स्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव १ रचयिता २ श्लोक संख्या अनेकान्त त्वमेव बन्धुश्च ससा त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देव देव || ३ प्रस्तावना में श्लोक ४ समापन में श्लोक ५ छन्द ६ प्रलंकार ७ नाम उद्देश्य बिभाजन १० प्रभिव्यक्ति यह श्लोक विष्णुसहस्रनाम का प्रामुख ही है पर यह उसमें नही है । इसमें जैसे भक्त की भगवान विषयक अनन्य निष्ठा की अभिव्यक्ति हुई है, वैसे ही जिनसहस्रनाम के निम्नलिखित श्लोकों में भी जिनसेन या जिन भक्त की अनन्य निष्ठा प्रगट हुई है : स्वमतोऽसि जगद्वन्धुः स्वमतोऽसि जगद्भिषक् । न्यमतोऽसि जगद्धाताः स्वमसोऽसि जद्द्द्धितः ॥ सक्षेप में दोनो ही सहस्र नाम अपने में अनन्य निष्ठा की आत्मसात किये हैं और भगवान के एक नहीं अनेक नामो के लिये स्वीकृति दे रहे है। दोनो ही प्रतिदिन पढ़े जान पर भक्तो के लिये लोक-परलोक के कल्याण की बात कह रहे है । सारिणी १ मे उपरोक्त विवेचन का सक्षेपण किया गया है । सारिणी १. जिनसहस्रनाम ओर विष्णुसहस्रनाम जिनस० विष्णुस ० जिनसेन वेदव्यास १६७ १३ १३ अनुष्टुप् उपमा, अनुप्रास बहुल १००८ परमश्रेय, लौकिक निवृत्ति दश अध्याय वीतरागता 00 १४२ १३ १२ अनुष्टुप् उपमा अनुप्रास बहुल १००८ परमश्रेय, किंचित् शुभलोकिक प्रवृत्ति ईश्वर के प्रति कर्तव्यभाव बाहुबली की मूर्ति बाहुबली अथवा गोम्मटश्वर का जीवन चरित्र किसी भी महाकाव्य का विषय हो सकता है । सन् १९२५ मे मै कारकल गया था, वहा की पहाड़ी पर बाहुबली की ४७ फुट ऊंची मूर्ति देखी थी । श्रवणबेलगोल की ५७ फुट ऊंची मूर्ति देख आय हूँ । एक ही पत्थर में से खादी हुई ऐसा सुन्दर मूर्ति ससार में कोई दूसरी नही। इतनी बड़ी मूर्ति भी इतनी सलौनी और सुन्दर है कि भक्ति के साथ-साथ प्रेम की अधिकारी हो गई हैं । इस प्रदेश के गाव-गाव में बिखरी मूर्तिया और कारीगरी से खडित पत्थरो को इकट्ठा करके किसी भी राष्ट्र के गर्व करने याग्य अद्भुत संग्रहालय तयार हो सकता है । - काका कालेलकर
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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