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________________ २०, १३, किरन ४ अनेकारत हो समय में ऋषभ सतति सुयोग्य-शक्तिशाली तथा प्रशासन के काम-क्रोधादिक सभ्यन्तर कापायिक शत्रभों को जीतने पट हो गई। मयोगवश नीलाजना के नत्य के समय भायु की अनुमोदना कर उठे। उन्हे सासारिक ऐश्वयं नीरस समाप्ति के निमित्त में भगवान को वैराग्य उत्पन्न हुमा और निरर्थक प्रतीत हो उठा। वे वैराग्योम्मख हए । फलस्वरूप अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को साम्राज्य पद पर उन्होने एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर घोर तप अभिषेक कराया पौर बाहुबली को युवराज पद पर घलकृत किया। उनके इस निर्णय ने पराजित भरत के मनोरथ किया। भरत अयोध्या क राजा हुए और शेष पुत्रों को को पूर्ण किया फलस्वरूप भरत जी निर्वाष चक्रवर्ती बन विभिन्न राज्यों का प्रशासक बनाया गया। बाहुबली जी कर राज्य भोगने लगे। पोदनपुर के राजा बनाए गए। महातपस्वी बाहुबली जी प्राध्यात्मिक-साधना में जुट कालान्तर में भारत ने दिग्विजय हेतु देश-देशान्तरों गए महातपश्चरण करते हुए वे सिद्धि-शीणं तक पहुंच रहे में गमन करना प्रारम्भ किया । जहाँ-जहां वे गए उन्हे थे कि उनके मन में एक शल्य ने जन्म लिया। शल्य यह सफलता प्राप्त होती गई। उन्होंने चक्रवर्ती यश मजित कि वे भरत-भमि पर अध्यात्म-साधना कर रहे है। किया। दिग्विजयी होकर जब वे अपनी राजधानी मे वापस निःशल्य हुए बिना केवलज्ञान की प्राप्ति सम्मव नही प्राए तब उनका चक्र रत्न गोपुर द्वार के पास रुक गया। होती। उधर महाराजा भरत अपार राज-वैभव को भोगते इसका अर्थ यह होता है कि भरत जी को अभी भी कोई हए ऊबने लगे। मंयोगवश जब उन्हें यह ज्ञात हुपा कि जीतना शेष है। निमित्त ज्ञानियों के सहयोग से यह महातपस्वी बाहुबली जो शल्यशील होने से अघर मे है तो स्पष्ट हमा कि बाहुबली द्वारा उनकी अधीनता स्वीकार वे उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुए। नमोस्तु करते हुए उन्होंने नहीं हुई है। यह जान कर महाराजा भरत का उद्विग्न निवेदन किया किहोना स्वाभाविक था। उन्होंने क्रमशः अपने सभी भाइयो भरत चक्रवर्ती बनकर जब कोनि-शिला पर अपना नाम के पास राजदूत भेजे । बाहुबली के अतिरिक्त सभी अकित करने हेतु मेरा जाना हुमा तो शिला को देख कर बन्धुषों ने अपने-अपने अग्रज भरत जी की शरण स्वीकार मैं दंग रह गया। पूरा शिला खड चक्रवतियो के नामो से करली। बाहबली जी अपने को सर्वथा स्वाधीन शनुभव भरा पड़ा है। किसी नए नाम को उस पर लिखना सम्भव कर निर्वाध राज करते रहे। नही दिखा फलस्वरूप मैंने अंतिम नाम को मिटा कर ऐसी स्थिति में दोनों राजाम्रो की शक्ति सामथ्र्य का अपना नाम उत्कीर्ण कराया है। नाम तो उत्कीणं करा भएनी-अपनी शक्ति परीक्षण करने कराने के अतिरिक्त लिया किन्तु मेरे मन मे चक्रवर्ती होन का उत्साह प्रायः अन्य कोई मार्ग अथवा उपाय शेष नही रहा। परिणाम समाप्त हो गया और वह भारी छोभ से भर गया । क्षोभ स्वरूप इनमे युद्ध प्रतियोगिताएं स्थिर ।। नर-संहार से इस बात का कि चक्रवर्ती पद कोई निराला नहीं है। पौर बचने के लिए व्यक्तिशः जल, मल्ल, तथा दष्टि नामक इस प्रकार मेरा सारा पुरुषार्थ निरर्थक ही रहा । सोचकर युद्ध प्रतियोगिताए इन उभय बन्धु राजामो कंबल-विक्रम में पापको इस शरण मे चला पाया हूं। का निर्णायक-निकर्ष सर्वमान्य हुना। दोनो पार की प्रजा, महामने भरत जैसे प्रगणित चक्रवर्ती राजा इस भूमि प्रभु मोर प्रागत दर्शनार्थियो के समक्ष युद्ध प्रतियोगिताएं के स्वामो बनने का मिथ्या दावा करते गए-किसी ने प्रारम्भ हुई। दिग्विजयी भरत इन प्रतियोगितामो में अभी तक वास्तविक स्वामित्व प्राप्त करने का सकल्प ही क्रमशः पराजित होने लगे। प्रायोजित इन प्रतियोगितामो नही किया, वस्तुतः भाश्चर्य का विषय है। मुनिवर-यह ने उपस्थित अपार जन समूह को पाश्चर्य अन्वित कर भूमि कभी किसी को नहीं हुई है। कहा भी है-जहां देह दिया और महाराजा बाहुबली का बल-विक्रम सर्वोपरि अपनी नही वहां न अपना कोय ।-मन्यत्व भावना । घोषित किया गया। उद्बोधन सुनते हुए महामुनि बाहुबली ने पर्दनिमोलित इस भौतिक विजय से उनका मन क्षुब्ध हो उठा पोर नेत्रो से देखा और देखते-ही-देखते वे नि:शल्प हो गए,
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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