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________________ बाहुबली पोर महामस्तकाभिषेक मावागमन से मुक्त हो गए । वे केवल्यज्ञान को पा गए। नमोस्तु निवेदित है। बाहुबली जो वस्तुतः जीत को जीत कर मजीत बन गए । ससार सागर से तिरने का प्रमोध साधन सुझा गए। एक हजार वर्ष पूर्व की घटना है। गंगवशीय नरेशों के धर्मप्राण सेनापति श्रीमान् चामुण्डराय ने विध्यगिरि, तथा बुझा गए वह रहस्य जिसको जाने बिना राजा पोर (श्रवणबेलगोला, कर्णाटक) पर माध्यात्मिक, सांस्कृतिक रक अनादि काल से मानवीयपर्याय पाकर निरर्थक ही पोर कलात्मक चेतना को प्राणप्रतिष्ठित करने के लिए गवाता रहा। कल का बाहुबली वस्तुतः माज का बोधबली बाहुबली की प्रतिमा स्थापित की । सिद्धांताचार्य श्री नेमि बन गया। प्राचार्य नेमिचन्द्राचार्य की शब्दावली मे श्री चन्द्राचार्य जी द्वारा प्रतिष्ठा-अनुष्ठान सम्पन्न हुमा। गोम्मटेश हमारी स्तुति के स्तुत्य बन गए । यथा सत्तावन फीट ऊची एक ही शिलाखंड से उकेरी गई इस उपाहिमत्तं धण-धाम वज्जिय, प्रतिमा की भव्यता तथा शान्तिदायिनी प्रभा माज भी सुसम्मजतं भय-मोह हारयं । सन्मार्ग को प्रशस्त करती है। बस्सेयपज्जत भव वास-जुत्तं, संगोम्मटे संपणमामि णिच् ॥ विश्वव्यापी कला-कीति को अधिष्ठात्री इस प्रतिमा अर्थात् जो समस्त उपाधि परिग्रह से मक्त है, धन का महत्रादि महामस काभिषेक दिनांक २२ फरवरी मोर धाम का जिन्होने अन्तरग से ही परित्याग कर दिया, उनोस सौ इक्यासी को होने जा रहा है। भक्त समुदाय मद और मोह, राग दोष को जिन्होने तप द्वारा जीत कर अपनी वर्तमान पर्याय में पहली और प्रकली बार इस क्षायिक भाव में स्थित हुए तथा पूरे एक वर्ष तक जिन्होन मागलिक अवसर पर श्रवणबेलगोला पहुच कर कलशाभिषेक प्रखड उपवास व्रत लिया है, ऐसे श्री गोम्मटेश महा. कर भगवान के श्री चरणो मे अपनी श्रद्धाजलियां मर्पित तपस्वी के श्री चरणों में मन, वचन मोर काय से मेरा कर सकते है । 000 (पृ०१७ का शेषाश) गग-वंश के राचमल्ल नृप विश्व-कीति-व्यापक है। (पृ० १८ का शेषांश) नप-मन्त्री चामुण्डरायजा जिसके संस्थापक हे। महान इष्टिकोण परिलक्षित होता है, जिसके लिए बारजा निर्माण हआ नोसे नब्बे में यशवर्द्धक है। वली को हजारो-हजार धन्यवाद हैं। उनके मन मे करुणा राज्य-वश मैसूर आजकल जिसका सरक्षक है। की, अहिंसा की वह उज्ज्वल-धारा प्रवाहमान हुई कि उसकी देख-रेख रक्षा में आना यांग लगाओ। उन्होंने हजारों-लाखो व्यक्तियो को गाजर-मली की तरह वन्दनाय ह न ताथं तुम युग-युग म जय पाआ॥६॥ कटने से बचा लिया। उन्होंने स्वय न लड़कर दूसरों को लड़वाने मे, युद्ध की माग में झोकने में अपने जीवन को काह लखना पुण्य-तोयं क्या गारव कथा तुम्हारी। अधिक कलुषित होते देखा। जन-धर्म का वह यूग-पुरुष, विस्तृत काति-सिन्धु तरन म है असमय विचारा॥ जब दूसरो से युद्ध करवाने की प्रपेक्षा स्वयं युद्ध करने को नतमस्तक अतस्तल तन-मन-धन तुम पर बलिहारी।। उद्यत हुमा, तो उस महान् ऐतिहासिक निर्णय की तेजस्विता मन-शत नमस्कार तुम का हे नमस्कार अधिकारी ।। से उसका मंग-प्रग मालोकित हो उठा, चमकने लगा। फिर सम्पूण विश्व में अपना विजय-ध्वजा फहराआ। वन्दनाय ह जैनतार्थ तुम युग-युग में जय पाना॥१०॥ DOO DDO
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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