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________________ उत्तरभारत में गोम्मटेश्वर बाहुबली a डा. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, वाराणसी बाइबली गोम्मटेश्वर प्रथम जैन तीर्थकर (या जिन) महामस्तकाभिषेक महोत्सव का आयोजन किया जा रहा प्रादिनाथ के पुत्र हैं। जैन परम्परा में इनका गोम्मट, है। यह धार्मिक महोत्सव विशाल स्तर पर आयोजित है। गोम्मटेश्वर भुजबली, एवं कुक्कटेश्वर प्रादि नामो से भी इस अवसर पर हम प्रस्तुत लेख के माध्यम से यह बतलाना उल्लेख हपा है। बाहुबली की जैन परम्परा में वर्तमान चाहते है कि बाहुबली मूर्तियों का निर्माण उत्तर भारत मे भवसपिणी युग का प्रथम कामदेव भी कहा गया है। भी पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। इस क्षेत्र में प्रभास पाटण कैवल्य प्राप्ति के लिए बाहुबली ने एक वर्ष तक जो कठिन (गुजरात), खजुराहो, (पार्श्वनाथ मंदिर-मध्य प्रदेश), तपस्या की थी, उमी कारण उन्हें जैन देवकूल में विशेष बिल्हारी जबलपुर, मध्य प्रदेश) एवं देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) प्रतिष्ठा मिली। मूतियों में बाहुबली को सदैव कायोत्सर्ग जसे स्थलों से नवी से १२वी शती के मध्य की कई मद्रा में दोनों हाथ नीचे लटकाकर सीधे खडा दिखाया मूर्तियाँ मिली है। एक मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ गया है। यह मुद्रा स्वतः उनकी कठिन तपस्या को मूर्त (क्रमांक ६४०) में भी है। विशालता की दृष्टि से उत्तर रूप में व्यक्त करती है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो भारत के दिगबर स्थलो की उपयुक्त मूर्तियां दक्षिण भारत परम्परा के ग्रन्थों में बाहुबली के जीवन और उनकी को श्रवणबेलगोला, कारकल, वेणर एवं गोम्मट गिरि जैसे तपस्या का विस्तार से उल्लेख हुप्रा है। पर शिल्प मे स्थलो की १८ से ५७ फीट ऊँची मूर्तियो की समता नही बाइबली की सर्वाधिक मूतिया दिगंबर स्थलो पर बनी। करती. पर उनमे कुछ ऐसे मौलिक प्रतिमालाक्षणिक तत्वो उनमें भी सर्वाधिक मूर्तियां दक्षिण भारत में बनी। के दर्शन होते है, जो इस क्षेत्र की बाहवली मूर्तियो की श्वेतावर स्थलों पर १४वी शती ई. के पूर्व बाहुबली निजी विशेषताएँ रही है। भाशय यह कि बाहुबली मूर्तियो की कोई स्वतन्त्र मूर्ति सम्भवतः नही बनी। १४वी शती के लक्षणो के विकास में उत्तर भारत के दिगबर स्थलो ई०की श्वेत वस्त्रधारी बाहुबली की श्वेताबर मूर्ति की मूर्तियो का अग्रगामी योगदान रहा है। इस क्षेत्र में गुजरात के शत्रुजय पहाड़ी पर है। श्वेताबर स्थलो पर कलाकार का सारा प्रयास इस बात पर केन्द्रित था कि माविनाष के जीवन दृश्यों के प्रकन के प्रसंग में भी किस प्रकार बाहबली की तीर्थकरों के समान प्रतिष्ठा कुंभारिया (गुजरात) मोर माबू (विमलवसही-राजस्थान) प्रदान की जाय । यह बात देवगढ़ की वाहुबली मूर्तियो के मे भरत-बाहुबली की तपस्या का निरूपण हुमा है। दिगंबर मध्ययन से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। प्रस्तुत विषय स्थलों पर छठी-सातवीं शती ई. में ही बाहुबली की पर लेखक की एक पुस्तक भी प्रकाशन में है। मूतियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया, जिसके प्रारम्भिकतम देवगढ की बाहुबली मूर्तियों की चर्चा के पूर्व यहाँ उदाहरण कर्नाटक स्थित बादामी पौर प्रयहोल मे है । ग्रन्थो में बाइबली के जीवन एवं उनकी तपस्या से संबंधित बाहुबली गोम्मटेश्वर की ज्ञात भूतियों में विशालतम विवरणो का उल्लेख पृष्ठममि सामग्री के रूप में मावश्यक पौर श्रेष्ठतम प्रवणबेलगोला (हसन जिला, कर्नाटक) की होगा। इस पृष्ठमि के बिना हम उन मूतियों के स्वरूप मूति है। ५७ फीट ऊँची यह दिगंबर प्रतिमा न केवल एक महत्व का वास्तविक निरूपण नही कर सकेंगे। जैन भारत वरन् विश्व की भी सम्भवत: विशालतम धार्मिक परम्परा में बाहबली प्रसग का प्रारम्भिकतम उल्लेख मूर्ति है। इस मूति में बाहुबली के मुख पर मन्दस्मित भोर विमलसूरिकृत पउमचरियम (तीसरी शती ई.) में हुमा गम्भीर चिन्तन का भाव व्याक है। बाहुबली की कायोत्सर्म है। तदनन्तर दोनो परम्परा के कई प्रन्यो में बाहुबली की महा पूर्ण पास्मनियंत्रण का भाव व्यक्त करती है। इसका कथा का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें वसुदेव निर्माण काल ६९१ ई० मे गग शासक के मन्त्री चामुणराय हिण्डी (छठी शती ई०), हरिवंशपुराण (८वीं शती ई.), पारा कराया गया था। फरवरी ८१ में स्थापना के १००० पपपुराण (७वी शती ई०), पादिपुराण (वौं शती ई.) वर्ष पूरा करने के अवसर पर इस प्रतिमा के सहस्राब्दि एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (१२वीं शती ई.) मुख्य
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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