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उत्तर भारत में गली गोम्मटेश्वर
हैं। संक्षेप में इन अन्धों में गणित बाहुबली कथा इस होने के बाद ही वाहवली केवब-जान प्राप्त कर सके। प्रकार है:
दिगंबर परम्परा में इस प्रसंग का पहलेख है। एक वर्ष बाहुबली के पिता प्रादिनाथ और माता सुनन्दा थीं। की कठिन तपस्या की अवधि में बाहुबली ठण्ड, सूर्य को पादिनाथ के १०० पुत्रों ओर २ पत्रियो मे भरत सबमे ताप, वर्षा, वायु और बिजली की कड़क को शान्तभाव से बड़े थे । जैन परम्परा मे भरत को प्रथम चक्रवर्ती बनालाया महत रहे । उनका सम्पूर्ण शरीर लता वल्लरियों से घिर गया है प्रादिनाथ के दीक्षा ग्रहण करने के बाद भरत गया, और उस पर सर्प, वृश्चिक पौर छिपकली जैसे चक्रवर्ती विनीता और बाहुबली तक्षशिला के शामक हा। जन्तुमो का निवास बन गया। चरणों के समीप वल्मीक दिगबर परम्परामें बाहुबली को पोदनस या पोदनपूर
मे ऊपर उठते सपं विचरण करते थे। किन्तु ध्यान निमग्न शासक बनाया गया है। दिग्विजय के उपरान्त चक्रवर्ती बाहयली इन सबसे प्रविचलित पौर प्रभावित रहे, जो भरत ने अपने ६८ भाइयो रे पत्ता बोकार करने को बाहुबली की तपस्या की कठोरता का परिचायक है। कहा। इस पर सभी ६८ भाइयों ने राज्य का त्याग कर उपयुक्त परम्परा क अनुरूप हा मूातया
उपर्युक्त परम्परा के अनुरूप ही मूर्तियों में बाहुबली दीक्षा ग्रहण कर ली। भरत ने वाहबली में भी यही
कायोत्सर्ग मद्रा में निरूपित हए और उनके शरीर पर प्रस्ताव किया, जिसे बाहुबली ने अस्वीकार कर दिया। माधवी, सर्प, वृश्चिक एवं छिपकली पादि का प्रदर्शन फलतः दोनों भाइयों के मध्य युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। हुमा। युद्ध की विभीषिका को कल्पना करते हुए उसमे होने वाले उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ भीषण नरसहार को रोकने के उद्देश्य से बाहचली ने भरत प्राचीन भारतीय स्थापत्य एव मूर्तिकला का एक प्रमुख से शस्त्रविहीन द्वन्द्व युद्ध का प्रस्ताव किया। इस द्वन्द्व युद्ध केन्द्र रहा है। देवगढ़ के गुप्तकालीन दशावतार मन्दिर मे जब भरत किसी प्रकार राहुबली पर नियत्रण नही कर का महत्व सर्वविदित है। ब्राह्मण धर्म के साथ ही नवी मके, तब निराशा में उन्होंने देवनाप्रों से प्राप्त दालचक्र मे १२वी शती ई. के मध्य देवगढ जैन-धर्म का भी एक से बाहुबली पर प्रहार किया। भरत की राज्यलिप्सा और प्रमुख केन्द्र रहा है, जिसको साक्षी यहां की अपार जैन उसके कारण अपने वचन से विमख होने की इस घटना मूर्तिया और मंदिर है। यह दिगबर परम्परा का कलासे बाहुबली इतने दुःजी हर कि नक्षग उन्होंने समार केन्द्र था। जैन प्रतिमागास्त्र के अध्ययन की जितनी प्रभूत त्यागकर दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया। बाइबली ने मामग्री यहाँ है, उतनो सम्भवतः मथुरा के प्ररिरिक्त अन्य केशों का लुचन कर वस्त्राभूषणो का परित्याग किया। किसी एक स्थल पर नहीं मिलती है। २४ यक्षियों के बाद में भरत को भी अपनी भून का अहसास हमा, पौर मामूहिक चित्रण का प्रारम्भिकतम प्रयास यहीं किया वे सेना सहित राजधानी लौट गये।
गया। २४ यक्षियों की मूर्तियां मन्दिर १२ (शांतिनाथ दीक्षा ग्रहण करने के बाद बाहबलो ने अत्यन्त कठिन मंदिर, ८६२ ई.) की भित्ति पर बनी हैं। यक्ष पौर तपस्या की पौर पूरे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग मदा में खडे यक्षियों के निरूपण में जितनी विविधता यहां प्राप्त होती रहे। ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग मुद्रा कठिन तपस्या की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । यही स्थिति भरत चक्रवर्ती और मुद्रा है। इसी मुद्रा मे सभी तीर्थको नेस्या की थी। बाहुबली की मूर्तियों की भी रही है। वर्तमान सन्दर्भ में बाहुबली की मूर्तिया केवल इसी मुद्रा में बनी है। एक वर्ष हमारे लिए केवल बाहुबली मूर्तियों की ही प्रासंगिकता है। की कठिन तपस्या के बाद बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हुमा। देवगढ़ मे बाहबली की कुल ६ मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां पर श्वेतांबर परंपरा के अनुसार दर्प के कारण बाहुबली कुछ १०वीं से १२वीं शती ई. के मध्य की है। उदाहरणों में समय तक कंवस्य प्राप्ति से वचित रहे। इस पर पादिनाथ ने वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न से युक्त बाहुबली के शरीर से बाहवमी को दोनों सुन्दरी, बहिनों ब्राह्मी और को उनके पाम माधवी लिपटी है। मंदिर १२ की छोटी मूर्ति में दोनों दपं दूर करने के लिए भेजा। इस प्रकार दर्प से मुक्त पोर दो स्त्री प्राकृतियां बनी है, जिनमें से एक के हाथ में