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बाहुबली और महामस्तकाभिषेक
0 डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़
श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतिया मिल कर भारतीय प्रथमानुयोग मे अनेक पुराणों का उल्लेख मिलता है। संस्कृति को स्थिर करता है। ब्राह्मण से वैदिक और श्रमण पुराण परम्परा में महापुराण का स्थान बड़े महत्व का है। से बौद्ध तथा बौद्ध से बहुत पहिले जैन संस्कृति का अभि- महापुराण मे चौबीसों तीर्थंकरों के विषय में पर्याप्त चर्चा प्राय लिया जाता है। वैदिक वाङ्मय के लिए वेद, बौद्ध हुई है। प्रथम तीर्थकर से सम्बन्धित यहाँ संक्षेप में चर्चा वाङ्मय के लिए पिटक पोर जैन बाद मम के लिए पागम करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है। कहते है कि अयोध्या शब्द का प्रयोग प्रारम्भ से ही होता आ रहा है। के महाराजा नाभिराय और महारानी मरुदेवी के यशस्वी
पुत्र ऋषभदेव उत्पन्न हुए । युवराज ऋषभ का नन्दा मोर प्रागम को विषय की दृष्टि से चार भागों में विभाजित सनन्दा नामक राजमारियों के साथ मंगल परिणय हमा किया गया है। प्रत्येक भागको अनुयोग की संज्ञा दी गई है। महारानी नन्दा के ज्येष्ठ पुत्र भरत थे जिनके नाम पर इस प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग पीर द्रव्यानुयोग विशाल देश का नाम भारत पड़ा। भरत के उपरान्त नामक ये चार पूरे पागम के रूप को स्वरूप प्रदान करते उनके निन्यानवें भाई और हए। वे सभी प्रतापी थे। भरत है। प्रथमानुयोग मे जिनेन्द्र देवो पर प्राधृत अनेक कथाएं की बहिन का नाम बाह्मी था। महादेवो सुनन्दा के महाऔर पुराण रचे गए है। करणानुयोग में कम-सिद्धान्त प्रतापी पत्र बाहबलो तथा सुन्दरी नामक सुपुत्री का जन्म और लोक व्यवहार, चरणानुयोग से जीव का प्राचार- हा था । विचार तथा द्रव्यानुयोग से चेतन-प्रचेतन द्रव्यो का स्वरूप तथा तत्वो का निर्देश सम्बन्धी बातों की विशद विवेचना
बाहुबली के विषय मे महापुराण में विशद विवेचन सम्बद्ध है।
विद्यमान है। बाहुबली के नाम की सार्थकता सिद्ध करते
हुए महापुराणकार को मान्यता है कि उन तेजपुंज विशाल नागम के अनुसार जनतत्त्व चिन्तन प्रणाली वस्तुतः
बाहु की दोनो भुजाएँ उत्कृष्ट बल परिपूर्ण थी, इसीलिए अनादि है। इस अवसपिणी काल मे जैन धर्म का प्रवर्तन
उनका नाम बाहुबली वस्तुतः सार्थक था । यथाभगवान ऋषभदेव के द्वारा हुग्रा । चौबीस तीर्थकरो मे भगवान ऋषभदेव प्राद्य तीर्थकर है अज्ञानता से कुछ लोग बाहु तस्य महावाहोः प्रधाना बल मजितम। कभी-कभी प्रतिम और चौबीसवें तीर्थकर महावीर भगवान यतो बाहुबलीस्यासीत् नामास्य करुणानिधेः॥ को ही जन धर्म का प्रवर्तक घोषित कर देते है।
महापुराण-१६-१७ वास्तविकता यह है कि जैन धर्म एक प्राकृत धर्म है। उसका कोई व्यक्ति विशेष निर्माता या कर्ता नही है। महाराजा ऋषभ अपनी सतति को विविध शास्त्रो किसी व्यक्ति द्वारा धर्म विशेष का नहीं अपित किसी का अध्ययन कराते ! और उन्हें लोक पोर लोकोत्तर ज्ञान मत का प्रवर्तन हुमा करता है। हाँ समय-समय पर से विभूषित करने । इसी क्रम में भरत जी को अर्थशास्त्र तीर्थंकरों द्वारा जन साधारण के लाभ हेतु धर्म का उन्नयन और नृत्य शास्त्र का और बाहुबली को काम नीति, स्त्रीअवश्य हुमा करता है। उनके द्वारा धर्म की प्रभावना पुरुष के लक्षण, मायुर्वेद, तंत्र शास्त्र तथा रत्नपरीक्षा भवश्य होती है।
मादि के अनेक शास्त्रों का अध्ययन कराया गया। कुछ ,