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________________ करुणामूर्ति बाहुबली - उपाध्याय श्री अमरमुनि जैन-इतिहास का पहला अध्याय भगवान ऋषभदेव रूप में सेवा लेने का अधिकार है। मैं भरत से छोटा हैं । मे प्रारम्भ होता है। वही से जीवन की कला उद्भत मैं हजार बार सेवा करने को तैयार हैं। परन्तु, भाई बनहोती है । भगवान् ऋषभदेव के समय में ही उनके ज्येष्ठ कर ही सेवा करूंगा, दास भोर गुलाम बनकर नहीं। पुत्र भरत के चक्रवर्ती बनने का प्रसंग पाया। वे लड़ाइयां बाहुबली की वृत्ति में यही चिन्तन था। उन्होने लडते रहे । भारत की समस्त भूमि पर उनका स्वामित्व, सोचा--भरत हैं, जो चक्रवर्ती बनने को उत्सुक है और मैं, प्राधिपत्य स्थापित हो गया। किन्तु उनके भाइयों ने उनका अपने स्वाभिमान को तिलांजलि नही दे सकता। हम दोनो माधिपत्य स्वीकार नहीं किया। तब भरत ने सोचा, जब अपनी-अपनी बात पर अटल रहने के लिए तलवार लेकर तक भाई भी मेरे सेनाचक्र के नीचे न पा जायें, तब तक युद्ध के मैदान मे पाये है। प्रश्न है-मेरा और भरत का। चक्रवर्ती का साम्राज्य पूरा नहीं होगा। यह सोचकर भरत बेचारे सनिक एवं यह गरीव प्रजा क्यों कट-कट कर मरे ? ने अपने ६६ भाइयो के पास दूत भेजा । बाहुबली विशेषरूप हम दोनों के झगड़े मे हजारों-लाखो व्यक्ति दोनों ओर के से महान भुजबल के धनी और स्वाभिमानी थे। उन्होने कट मरेंगे, कितना भीषण नरसंहार होगा ? न मालूम, भरत की अधीनता स्वीकार करने से साफ इनकार कर कितनी सुहागिनों का सिदूर पुंछ जायगा? कितनी मातायें दिया। परिणामतः भरत और बाहुबली की विशाल सेनायें अपने कलेजे के टकड़े के लिए विलाप करेंगी और कितने मैदान में प्रा डटी। जब दोनों पोर की सेनायें जूझने को पत्र अनाथ होकर अपने पितामों के लिए हजार-हजार तयार थी, सिर्फ शंखनाद करके पादेश देने की देर थी कि प्रांम बहायेंगे? बाहुबली के चित्त में करुणा की मधुर लहर उद्भूत हुई। अत: बाहुबली ने भरत के पास सदेश भेजा-"प्रानो, वैसे तो इस प्रसंग पर इन्द्र के प्राने की बात कही भाई ! इस लड़ाई का फैसला मैं और प्राप दोनों प्रापम जाती है। अनेक युद्धों में इन्द्र को बुलाने के प्रसग भी मे कर लें। यह उचित नहीं है कि सैनिक लड़ें और हम मिलते है। किन्तु, इतिहास के मूल में यह बात नहीं है। लोग अपने-अपने कैम्पो में बैठे दर्शकों की तरह युद्ध देखते ऐसा कोई कारण नही है कि युद्ध में होने वाली हिंसा को रहें। अच्छा हो, सिर्फ हम दोनो परस्पर मल्ल-युद्ध करें परिकल्पना करके इन्द्र का अन्तःकरण तो करुणा से परि- प्रौर व्यर्थ के नरसंहार को समाप्त करें। इसका प्रर्थ पूर्ण हो जाए और बाहुबली जैसे अपने जीवन की भीतरी हुमा-युद्ध कराना नहीं, स्वयं करना है। कराने में जो तह मे विरक्ति-भाव, मनासक्ति-भाव और करुणा-भाव विराट हिसा थी, उसे स्वय के करने में सोमित कर दिया धारण करने वाले के चित्त में इन्द्र के बराबर भी करुणा गया। इस विचार से दोनों भाई युद्ध-मैदान में उतर पाये। न हो। प्राचार्य जिनदेव महत्तर ने प्रावश्यक चुणि में इन्द्र आंखों का युद्ध हमा, मष्टि-प्रहार का युद्ध हुमा । इस युद्ध के प्रागमन का उल्लेख नही किया है। उन्होंने स्वयं बाह. मे हिसा की उल्लेखनीय सीमा यह थी कि किसी को बली के हृदय में ही करुणा-स्रोत का उमड़ना लिखा है। मरना-मारना नही था, केवल जय-पराजय का निर्णय करना दिगंबर-परम्परा भी इस बात को मानती है। था। और यह निर्णय खून की एक बूंद बहाये बिना उक्त वस्तुतः बाहुबली ने सोचा कि भरत को चक्रवर्ती बनना तरीके से हो सकता था, जिसे किया गया। विश्व के इतिहै और मैं उसके पथ का रोडा हूं। तब मेरा स्वाभिमान हास मे वह युद्ध सर्वप्रथम अहिंसक युद्ध था। मुझे पादेश देता है कि मैं भरत की प्राज्ञा स्वीकार न प्रस्तुत प्रसंग में जैन-धर्म का पहिसा एवं करुणा का करूं। क्योंकि यह अनुचित है। भाई को भाई से भाई के (शेष पृ० २१ पर)
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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