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श्रवणबेल्गोल-स्तवन
श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' तुम प्राचीन कलाओं का आदर्श विमल दरशाते। पशु-रक्षा पर प्राण दिये जिन लोगों ने हँस-हँस कर। भारत के ध्रुव गौरव-गढ़ पर जैन केतु फहराते॥ वीर-वधू सायिबे लड़ी पति-संग समर के स्थल पर। कला-विश्व के सुप्त प्राण पर अमत रस बरसाते। चन्द्रगुप्त सम्राट मौर्यका जीवन अति उज्ज्वलतर। निधियों के हत साहस मे नवनिधि-सौरभ सरसाते॥ चित्रित है इसमें इन सबका स्मृति-पट महामनोहर ।। आओ इस आदर्श कीति के दर्शन कर हरपाओ। आ-आ एक बार तुम भी इसके दर्शन कर जाओ। वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥१॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ ॥५॥
शुभस्मरण कर तीर्थराज हे, शुभ्र अतीत तुम्हारा। मन्दिर अति-प्राचीन कलामय यहां अनेक सुहाते। फूल-फूल उठता है अन्तस्तल स्वयमेव हमारा॥ दुर्लभ मानस्तम्भ मनोहर अनुपम छवि दिखलाते। मुरसार-सदृश बहा दो तुमने पावन गौरव-धारा। यहा अनेकानेक विदेशी दर्शनार्थ है आते। तीर्थक्षेत्र जग में तुम हो दैदीप्यमान ध्रुवतारा। यह विचित्र निर्माण देख आश्चर्यचकित रह जाते ॥ खिले पुष्प की तरह विश्व म नवसुगन्ध महकाओ। अपनी निरुपम कला देखने देशवासियों ! आओ। वन्दनीय हे जेनतीर्थ तुम यग-युग मे जय पाओ ॥२॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥६॥
दिव्य विध्यगिरि भव्य चन्द्रगिरि की शोभा हे न्यारी। प्रतिमा गोम्मटदेव वाहुबलि की अति-गौरवशाली। पुलकित हृदय नाच उठता है हो वरवस आभारी॥ देखो कितनी आकर्षक है चित्त-लुभानेवाली।। श्रुत-केर
केवली मभदवाद सम्राट महा यश-धारी। बढ़ा रही शोभा शरीर पर चढ लतिका शभशाली। तप-तप घोर समाधिमरण कर यहीं कीति विस्तारी॥ मानों दिव्य कलाओं ने अपने हाथों ही ढाली।। उठो पूर्वजों को गाथाए जग का मान बढ़ाओ। इस उन्नति के मूल केन्द्र में जीवन ज्योति जगाओ। वन्दनीय हे जेनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥३॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥७॥
सात-आठ सौ शिलालेख का है तुममें दुर्लभ धन। ऊचे सत्तावन मुफीट पर नभसे शीश लगाए। श्रावक-राजा-सेनानी श्राविका-आर्यिका मनिजन ।। शोभा देती जैनधर्म का उज्ज्वल यश दरशाए॥ धीर-वीर-गम्भीर कथाएं धर्म-कार्य संचालन। जिसने कौशल-कला-कलाविद के सम्मान बढ़ाए। उक्त शिलालेखों में है इनका सुन्दरतम वर्णन ॥ देख-देख हैदर-टीपू-मुल्तान जिसे चकराए॥ दर्शन कर इस पूण्य क्षेत्र का जीवन सफल बनाओ। आओ इसका गौरव लख अपना सम्मान बढ़ाओ। वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम यग-युग में जय पाओ॥४॥ वन्दनीय हे जैनतीथं तुम यग-युग मे यश पाओ ॥८॥
(शेष पृष्ठ २१ पर)