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द्रव्य में कालद्रव्य
परिवर्तित नहीं होता और न वह अन्य द्रयो को अपने रूप में बदलता है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने आप में स्वतंत्र है, वह अपने से भिन्न किमी भी द्रव्य में न स्वय मिलता है और न दूसरे द्रव्य को अपने रूप में परिणित करता है । कोई भी द्रव्य अपने से भिन्न द्रव्य को बदल नही सकता, उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी ही पर्यायों में परिणमन करता है।
द्रवित होना, परिणमन करना यह द्रव्य का स्वभाव है। हाल उस परिणमन एवं परिवर्तन में सहायक बनता है, निमित्त रूप से रहता है । काल के कारण पदार्थ नये से पुराना होता है. पुरानेपन के बाद नष्ट होकर पुनः नया बनता है प्रर्थात् वस्तु का पूर्व प्राकार नष्ट होता है घोर वह नये कार को ग्रहण करती है । परन्तु इससे द्रव्य का विनाश नही होता - वह दोनों प्रकारों में विद्यमान रहता है । जैसे धा-कर्म का क्षय होने पर मनुष्य-वर्याय नष्ट होती हैं और देव प्रायु का उदय होने के कारण देव पर्याय उत्पन्न होती है। परन्तु मनुष्य पर्याय के समय जो जीव द्रव्य था, देव पर्याय के समय भी उसका अस्तित्व बना रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि द्रश्य की पर्यायों के परिवर्तन में काल- द्रव्य सहायक है, परन्तु काल द्रव्य का निमित्त पाकर सभी द्रव्यों की पूर्व पर्याय का नाश होता है मोर उत्तर- पर्याय उत्पन्न होती है, इसके साथ द्रव्य अपने स्वरूप मे सदा विद्यमान रहता है। कर्मयोगी श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि धारमा की न तो कभी मृत्यु होती है और न उसका जन्मोत्सव होना है । मृत्यु प्रौर जन्म भव का परिवर्तन मात्र है। जैस वस्त्रों के जीणं होने पर व्यक्ति जीर्ण वस्त्र को उतार कर फेंक देता है और नये वस्त्र को धारण कर लेता है । उसी प्रकार म्रायु कर्म के समाप्त होते ही भ्रात्मा एक भव के शरीररूप वस्त्र का परित्याग करके, दूसरे भवरूपी नये वस्त्र को धारण करती है । परन्तु भवनाश के साथ प्रात्मा का नाश विनाश नहीं होता । उसका मस्तित्व इस भव के पूर्व धनन्त प्रतीत काल में भी था, इस भव में वर्तमान में है और इम भव के अनन्तर धन्य भवों में प्रथवा प्रनन्त अनागत काल में भी रहेगा। चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन मारमा के
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अस्तित्व को तीनों काम मे स्वीकार करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व अथवा घपने स्वरूप की अपेक्षा ध्रुव है, नित्य है, परन्तु पर्यायस्व की प्रपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहा है प्रोर अनन्त प्रनागत काल में भी परिवर्तित होता रहेगा ।
काल अपने स्वभाव के अनुरूप किमी द्रव्य के प्रवाह को निरन्तर प्रमान करने की योग्यता नहीं रखता । द्रव्य की पर्यायों में परिणन कराना यह काल का स्वभाव नही है। जैन दर्शन उसी द्रव्य को काल कहता है, जो द्रव्य अपने स्वभाव के अनुरूप अपनी पर्यायों में निरन्तर परिणत होता रहता है, उसमें सहायक बनना काल का कार्य है। जिस प्रकार मशीन के चक्र के मध्य में लगी हुई कोल (Pin ) चक्र ( Wheel) को चलाती नही है, फिर भी उसका होना आवश्यक ही नही, अनिवार्य है । यदि चक्र में पिन न हो, सहायक के रूप में उसकी उपस्थिति न हो, तो चक्र घूम हो नहीं सकता। पिनचक्र को चलाती एवं घूमती नहीं है, पर उसके घूमने में वह सहायक है। इसी प्रकार काल-द्रव्य, द्रव्य में होने वाले निरन्तर परिवर्तन में सहायक है। C. R. Jain ने Key of knowledge में लिखा है
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'विश्व में ऐसा कोई दर्शन नहीं जो पदार्थ में रहे हुए निरन्तरता के तत्त्व से अनभिज्ञ हो, फिर भी इस रहस्य एव पहेली को हल करने में सफल नही हो सका । विश्व के अधिकाश दर्शन काल (Time) को केवल पर्यायवाची शब्द (Synonymous) के रूप में जानते है, परन्तु उसके वास्तविक स्वभाव (True nature ) को समझन में वे प्रायः असफल (Fail) रहे है। आज भी बहुत से विचारक एव दर्शन तो द्रव्यों के अस्तित्व की सूची के माधार पर कान की लम्बाई को नापते है, धौर उसे उसी रूप में जानने है परन्तु वे इस बात को भूल जाते है कि सिर्फ काल के कारण पदार्थ निरन्तर अपनी पर्यायों में बहुता रहता है, द्रवित होता रहता है और उसके प्राकार में भी परिवर्तन घाता है। काल का प्रथम गुण यह है कि वह निरन्तर पत्र का स्रोत है, परिणमन में सहायक कारण है। इसको दूसरी विशेषता यह है कि काल एक प्रकार की शक्ति है, जो पदार्थों में होने वाले परिवर्तन को क्रमबद्ध