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________________ ७८, वर्ष ३३, कि० ४ अनेकान्त रखती है।" फेंच दार्शनिक बोसिन ने घोषणा की थी, शेर के सद्भाव में ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार भत, "पदार्थों में जो क्रान्ति एवं परिवर्तन प्राता है, उसमें काल भविष्य और वर्तमान कालिक व्यवहार से मुख्य काल का मावश्यक तत्त्व है। काल के बिना (Without time सद्भाव स्पष्ट सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों की तरह वह element) वस्तुषों में परिवर्तन होना पूर्णतः असंभव है।' भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है और उत्पाद, व्यय और नौग्य से जैन-दर्शन भी इस सत्य तथ्य को स्वीकार करता है कि युक्त है। काल-द्रव्य केवल समय-नापने का ही साधन या माध्यम काल के भेव : नहीं है, उसका गुण एवं स्वभाव यह है कि द्रव्य के द्रवित हम काल को सैकिन्ड, मिनिट, घण्टे, दिन-रात, वर्ष होने में, परिणमन होने में एव द्रव्य की पर्यायों के परि. प्रादि के रूप में जानते हैं । भत, भविष्य और वर्तमान के बर्तन में सहायक होना। रूप में उसे तीन भागों में भी विभाजित करते है। प्रारमों बैशेषिक-वर्शन को मान्यता : में अन्य प्रकार से भी काल का विभाजन किया हैवैशेषिक-दर्शन अपने द्वारा मान्य नव द्रव्यो में काल निश्चय-काल और व्यवहार-काल । व्यवहार-काल चन्द्र को भी एक द्रव्य मानता है। उसकी मान्यता के अनुसार और सूर्य की गति पर प्राधारित है, उसी के अनुसार काल एक नित्य और व्यापक द्रव्य है । परन्तु यह मान्यता सकन्ड, मिनिट, घण्टे, दिन-रात, पक्ष, महीना, वर्ष, युग, युक्ति-युक्त नहीं है, न तर्क सगत ही है और न अनुभव शताब्दी पल्योपम, सागरोपम, प्रवपिणी प्रादि के रूप में सिद्ध ही हैं। क्योंकि नित्य और एक होने के कारण उसमे काल-चक्र का विभाजन करते हैं। वैदिक परम्परा में स्वयं में प्रतोत, वर्तमान और अनागत त्रि-काल बोधक सतयुग, द्वापर त्रेता एवं कलियुग मादि के रूप में व्यवहारभेद नही हो सकता और तब उसके निमित्त को माध्यम काल का वर्णन मिलता है । इस व्यवहार-काल की अपेक्षा मानकर अन्य द्रव्यो एवं पदार्थों में प्रतीतादि भेदों को कैसे से ही इसे मनुष्य क्षेत्र अथवा ढाई-द्वीप में ही माना है। नापा जा सकता है? द्रव्य में जो परिणमन होता है, वह व्यवहार-काल लोक-व्यापी नही है। क्योंकि जितने लोक किसी समय में ही होता है, जो परिणमन हो चुका, वह में सूर्य और चन्द्र गतिशील है, उतने ही क्षेत्र में व्यवहारभी किसी समय विशेष में हमा था और जो परिणमन काल का उपयोग होता है, उसके बाहर नहीं है। परन्तु होगा, वह भी किसी समय विशेष में ही होगा। समय के लोक का एक भी ऐसा प्राकाश-प्रदेश नही है, जहाँ कालबिना परिणमन को वर्तमान, प्रतीत और अनागत काल से द्रव्य न हो। व्यवहार-काल भले ही वहां न हो, निश्चयसंबद्ध कैसे कहा जा सकता है ? कहने का अभिप्राय यह काल लोक में सर्वत्र व्याप्त है। है कि प्रत्येक माकाश-प्रदेश पर द्रव्यों में जो विलक्षण जिसे हम काल कहते है, वह व्यवहार जगत की परिणमन हो रहे है, उसमें साधारण निमित्त काल है, वह वस्तु है। परन्तु काल का जो सबसे छोटा प्रश है, जिसके भण रूप है । उसका सबसे छोटा रूप समय है। दो विभाग नही होते, उसे समय कहा है। एक परमाणु बौद्ध-वर्शन को मान्यता: लोक-प्रवकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाता है, बौद्ध-दर्शन काल को स्वभाव सिद्ध स्वतन्त्र द्रव्य नहीं उसमें जितना समय लगता है, उसे एक समय कहा है। मानता, उसको मान्यता के अनुसार काल मात्र व्यवहार समय, पाश्चयं जगत को वस्तु है। वह लोक में सर्वत्र के लिए कल्पित है, वह प्रज्ञप्ति मात्र है। परन्तु हम व्याप्त है। लोक में व्याप्त षड्-द्रव्यो को पर्यायों में प्रतीत, वर्तमान और अनागत का जो व्यवहार करते हैं, प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, उसमें समय ही सहायक वह केवल काल को कल्पना मात्र नही हो सकती। क्योकि है। यदि समयरूप काल का ढाई-दीप या मनुष्य-क्षेत्र से मुख्य काल-द्रव्य के बिना हम उसका व्यवहार भी नही कर बाहर प्रभाव मान लिया जाए, तो वहां किसी भी द्रव्य सकते । जैसे व्यक्ति में शेर का उपचार करते हैं, वह मुख्य का मस्तित्व ही नहीं रहेगा। क्योकि द्रव्य का स्वभाव ही १. भट्टशालिनो, १, ३, १६.
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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