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________________ २२, वर्ष २३,कि.१ अनेकान्त भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकम प्रात्मा से बंधता है कर्मफल-ईश्वरवादी दर्शन ईश्वर को कर्म का फल मोर द्रव्यकर्म के निमित्त से पारमा मे रागद्वेषादि भावों दाता मानते है। उसके अनुसार यह भज्ञ प्राणी अपने की उत्पत्ति होती है। सुख और दुःख में असमर्थ है। यह जीव ईश्वर की कर्म बन्ध प्रेरणा से स्वर्ग में या नरक में जाता है।" जैन दर्शन के जैन दर्शन के अनुसार दोनो ही प्रकार के कर्मों से अनुसार कर्म स्वय प्रपना फल देते है, किसी के माध्यम उत्पन्न कर्माण विभिन्न कालावधियों के लिए मनुष्य को से नही। इसी कारण कहा है कि उस कर्म से उत्पन्न बांधकर रखते है। इस प्रकार कमंबन्धन कर्म भोर प्रात्मा किया जाने वाला सुख दुःख कर्मफल है। कर्मफल के सम्बन्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न अवस्था में है। यह कर्म की प्रकृति से प्रभावित होता है। जैन दर्शन के अवस्था कषाय एवं योग के कारण उत्पन्न होती है अनुसार शुभ एवं अशुभ भावो से किये गए, कर्मों मे जीव प्राचार्य गद्धपिच्छ ने कहा है कि" "जीव कषाय सहित पर अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति होती है, होने के कारण कम योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है। अत: इन भावो का प्रभाव कम परमाणु पो पर ही होता है इसी का नाम बन्ध है। शुद्ध प्रात्मा मे कर्म का बंध नही और इमी के अनुसार वे कर्म अपने उदय के अवसर पर होता है, किन्तु कषायवान प्रात्मा ही कर्म का बंध करता तदनुरूप सुख और दुःख प्रदान करते हैं । है। प्राचार्य जिनसेनाचार्य ने भी कर्मबंध की लगभग ऐसी ही व्याख्या करते हुए कहा है कि-'यह प्रज्ञानी इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की प्रत्यन्त जीव इष्ट और अनिष्ट सकल्प द्वारा वस्तु मे प्रिय और सूक्ष्म एवं विषद तथा वैज्ञानिक विवेचना की गई है जो पप्रिय की कल्पना करता है, इससे रागद्वेष उत्पन्न होता यह बतलाती है कि मनुष्य स्वय अपने कर्म का सृष्टा है और रागद्वेष से कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार व भाग्य विधाता है। ईश्वर या अन्य कोई शक्ति न रागद्वष के निमित्त से ससार का चक्र चलता रहता तो उसके कर्म को निर्धारित करती है न ही उसके फल को। यही नही ईश्वरीय या अन्य कोई ऐसी शक्ति उसे इस प्रकार रागद्वेष रूप भावकम का निमित्त पाकर बुरे कामों के उदय या फल भोगने से मक्त भी नही करा द्रव्यकर्म प्रात्मा से बंधता है और द्रव्यकम के निमिन से सकती। कमों से मुक्ति के लिए कर्ता द्वारा स्वय कर्मक्षय मात्मा मे रागद्वेष रूपी भावकर्म उत्पन्न होता है। इन करना प्रावश्यक है। कर्मक्षय से कोई भी जीव शुद्ध को से उत्पन्न परमाण प्रत्येक समय बंधते रहने से अवस्था अर्थात् मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मनन्तानन्त होते है। यह बंध केवल जीवप्रदेश के क्षेत्रवर्ती इसी कारण स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि न तो कोई कर्म परमाणमों का होता है, बाहर के क्षेत्र में स्थित लक्ष्मी देता है और न कोई इसका उपकार करता है। कर्म परमाणुषों का नही । प्रात्म-प्रदेशों में होने वाला बघ शुभ मोर अशुभ कर्म ही जीव का उपकार भोर अपकार यह सम्भव नहीं हैं कि किसी समय किन्ही पात्म प्रदेशों करते हैं। के साथ बन्ध हो भोर किसी समय अन्य भात्म प्रदेशो णय को बि देदि लच्छी ण को बि जीवस्य कुणई उवयारं के साथ। प्रवयार कम्म पि सुहासुह कुणदि ॥ १६. जैन कर्म सिद्धांत पोर मारतीय दर्शन, १६. प्रज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयो। पूर्वोक्त पृ० ४७ ईश्वर प्रेरितो गच्छेत स्गं वाश्वभ्रमेव वा॥ १७. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुदगलानादसे महाभारत वन पर्व ३०१२८ स बन्धः । -तत्वार्थसूत्र कार १८. संकल्पवशो मूढः वस्त्विष्टानिष्टता नयते रागद्वेषोंततस्ताम्यां बन्ध दुर्मोचिमश्नुते । २०. तस्य कर्मणो याग्निष्पायं सुख दुःख तत्कर्म फलम। -महापुराण २४१२१ -प्रवचनसार त..प्र.। १२४
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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