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________________ जनकर्म सिद्धान्त इस प्रकार जैन दशं निको ने कर्म की विशद ए जाने पर प्रकुर नही उत्पन्न होता, उसी प्रकार कर्मबीज सूक्ष्म व्याख्या को है जो अन्य दर्शनो में की गई व्याख्यानों के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता। से नितान्त भिन्न है। जहाँ अन्य दर्शन परिणमन-रूप यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने पाल्मा के भावात्मक पर्याय को कम न कह कर केवल परिस्पदन स्वभाव को सकारात्मक व्याख्या करते हुए उसे विशुद्ध रूप क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, वहा जैन कर्म एवं प्रमीम क्षमतामों वाली कहा है। उनके अनुसार कर्म सिद्धान्त इन दोनो को ही कर्म कहता है। जैन दर्शन मे के दुष्ट प्रभाव के कारण वह अपने को सीमित अनुभव कर्म की यह व्याख्या अत्यन्त व्यापक है । करती है। कर्म के इम दुष्ट प्रभाव से प्रास्मा को मुक्त कर्म और प्रात्मा करा पाने पर ही सद्कर्मों की उत्पत्ति होती है, सदको लगभग सभी दर्शन, जो कर्म की धारणा पर विचार से कर्मबध टूटते है और कर्मबन्धों से पूर्ण मुक्ति पर हो करते है। कर्म को प्रात्मा से सम्बन्धित अवश्य मानते मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में है। जैन दार्शनिको के अनुसार प्रात्मा अनादिकाल से मोक्ष की धारणा का विकास, कर्म दर्शन के विकास पर कर्म बंधन से युक्त है कम बधन जन्म-जन्मान्तर मे प्रात्मा ही प्राधारित है। को बांधे रहते है, इम दष्टि में मात्मा और कर्म का कर्म के मेदसम्बन्ध अनादि है। परन्तु एक दष्टि में वह मादि भी जैन दार्शनिको ने कम की वहद व्याख्या करते हुए है; जिम प्रकार वृक्ष मौर बीज का सम्बन्ध मन्तति की कहा है कि-मिथ्यारव, मज्ञान, अविरति, योग, मोह दृष्टि से अनादि है, और पर्याय को अपेक्षा मे वर मादि तथा क्रोधादि कषाय ये माव जीव और अजीव के है, इसी प्रकार कर्मबघन सन्तान या उत्पनि को दष्टि से भेद से दो-दो प्रकार के हैं। इस प्रकार कर्म को दो प्रनादि और पर्याय की दष्टि से मादि है। जैनदर्शन माघारो भौतिक तथा मानसिक के माघार पर दो भेद मे कम और प्रात्मा के सम्बन्ध में इस व्याख्या के कारण किये गये है-'द्रव्य कर्म' एवं 'भाव कम'। द्रव्य कर्म ही मागे चलकर उसे वैज्ञानिक रूप दिया है जिस कारण का अर्थ है। जहा द्रव्य का प्रात्मा मे प्रवेश हो गया हो वह अन्य दर्शनो मे अलग है। जैन दर्शन कर्मबघन को प्रर्थान् जहां रागद्वेषादि रूप भावो का निमित पाकर प्रनादि और पर्याय की दृष्टि मे मादि मानबर ही मागे जो कार्माण वर्गणारूप पुदगल परमाण मात्मा के माथ बंध यह और व्याख्या करता है कि-- पर्याय की दृष्टि से जाते है उन्हें द्रव्य कर्म कहते है। यह पौदगलिक है, पौर सादि होने के कारण पूर्व के कर्मबंधनो को तोडा भी जा इनके प्रोर भी भेद किये गए है। सकता है। कोई भी सम्बन्ध प्रनादि होने से प्रनन्त नही भावकम प्रात्मा के चैतन्य परिणामात्मक है। इनमें हो जाते, विरोधी कारणो का समागम होने पर पनादि इच्छा तथा अनिच्छा जैसी मानसिक क्रियानों का समावेश सम्बन्ध टूट भी जाते हैं, जिस प्रकार बीज और वृक्ष का होता है। प्रथात् ज्ञानारणादि रूप द्रव्य कर्म के निमित्त सम्बन्ध अनादि होते हुए भी, पर्याय विशेष मे सादि होता से होने वाले जीव के राग द्वेषादि रूप भावों को भावकर्म है, और पर्याय विशेष मे किमी बीज विशेष के जल जाने कहते हैं । पर, मर्थात विरोधी कारणों से समागम के कारण उसमे द्रव्य कम भोर भाव कम को पारस्परिक कार्यकारणप्रकुर उत्पन्न नही होता। इस विषय में प्राचार्य प्रकलंक परम्परा अनादिकाल से चली पा रही है। इन दोनो मे देव तत्वार्थ राजवातिक (२/७) मे ऐमा ही दृष्टान्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। भावकर्म का निमित्त द्रव्य कम है देकर समझाया गया है कि जिम प्रकार बीज के जल और द्रव्य कर्म का निमित्त मावकम है। रागद्वेषादिरूप १५. मिच्छन पुण दुविह जीवमजीवं तहेव अण्णाण । पविरदि जोगो मोहो कोहादीया मे भावा । समयसार-मूल। ८७ प्र० प्रहिंसा मंदिर प्रकाशन, दिल्ली
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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