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२०, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्त
द्वारा जीव जो कुछ करता है, वह सब क्रिया या कर्म है। चूंकि परमाणु भौनिक तत्व है, प्रतः वस्तुमो के 'कारम' मन, वचन और काय ये तीन उसके माध्यम हैं । इसे जीव भी भोतिक तत्व है, इस सम्बन्ध में पानोचकों को इस कर्म या भावकर्म कहते हैं यहाँ तक कर्म को धारणा सभी भापत्ति का कि "अनेको क्रियाएं, यथा-सुख, दुःख, पीड़ा को स्वीकार है। यह धारणा केवल संसारी जोवों की भादि विशुद्ध रूप से मानसिक है, इसलिये उनके कारण भी क्रिया पर ही विचार करती है, अर्थात् केवल चेतन को मानसिक होने चाहिए, भौतिक नहीं।" उत्तर देते हुए क्रियाएं ही इसकी विषय वस्तु है, जड़ की क्रियामो अथवा कहा कि ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा जड़ एवं चेतन की क्रियाओं मे सम्बन्धो पर अन्य घारणामो
स्वतत्र नहीं है, क्योंकि सुख-दुख इत्यादि अनुभव मे विचार नही किया जाता, जैन दर्शन इन दोनों के
उदाहरणार्थ-भोजन प्रादि से सम्बन्धित होते हैं। सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक विचार करता है। इस
प्रभौतिक मत्ता के साथ सुख प्रादि का कोई अनुभव कारण उससे कम की व्याख्या अधिक व्यापक एव विस्तृत
नही होता, जैसे कि माकाश के साथ । अत: यह माना है। जैन दार्शनिक कम शब्द की भौतिक व्याख्या
गया है कि-इन अनुभवो के पीछे 'प्राकृतिक कारण' करते हैं।
है, और यही कर्म है। इसी प्रर्थ मे सभी मानवीय अनुभवों परिभाषा एवं व्याख्या
के लिये मुखद या दुखद तथा पसन्द या नापसंद कम श्री क्ष० जिनेन्द्र वर्णी के अनुमार" "भावकर्म से
जिम्मेदार है। प्रभावित होकर कुछ मूक्ष्म जड पुद्गल म्कन्ध जीव के प्रदेशो में प्रवेश पाते है और उसके माथ बंघते है, यह
इसी कारण विभिन्न जैन दार्शनिको ने जीव के बात केवल जैनागम ही बताता है। यह सुक्ष्म स्कन्ध रागद्वेषादिक परिणामो के निमित्त में जो कार्माणवर्गणा अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते है और रूप रसादि रूप पुद्गल-स्कन्ध जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, धारक मूर्तीक होते है। जैसे कर्म, जीव करता है, वैसे ही उन्हे कर्म कहा है। प्राचार्य कुन्द-कुन्द के अनुसार-“जब स्वभाव को लेकर द्रव्य कर्म उमके साथ बधते है और कुछ रागद्वेष से युक्ता पात्मा प्रच्छे या बुरे कार्यों में प्रवृत्त काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में प्राते होता है, तब कर्म रूपी रज. जानवरणादि रूप मे प्रात्महै उम ममय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण प्रदेशो मे प्रविष्ट होकर स्थित हो जाना है। श्री प्रकलंक तिरोभन हो जाते है। यही उनका फलदान कहा जाता देव ने कम की सोदाहरण व्याख्या करते हुए कहा है है सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं है।
कि- 'जिम प्रकार पात्र विशेष मे रखे गए अनेक रस इस प्रकार जैन दार्शनिक यह मानते है कि यदि वाले बीज, पुष् पतथा फलों का मदिरा रूप में परिणमन 'कम' मोनिक स्वरूप का है, तो 'कारण' भी भौतिक होता है। उसी प्रकार, क्रोध, मान, माया मोर लोम रूपी स्वरूप का होगा। अर्थात् जैन धर्म यह मानता है कि कषायो तथा मन, वचन मोर काय योग के निमित्त से
कि विश्व की सभी वस्तुयें मूक्ष्म स्कन्धो या परमाणमो प्रात्मप्रदेशो मे स्थित पुदगल परमाणुमो का कर्मरूप में से बनी है, अतः परमाणु ही वस्तु का कारण है और परिणमन होता है।" १०. जैनन्द्र सिद्धान्त कोप, भाग १ जिनेन्द्रवर्णी,
१३. परिणदि जदा प्रप्पा महम्मि प्रसुहम्मि रागदोस भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. २५ जदी। त पविसदि कम्मरय णाणावरणादिभावेहि ।।
-प्रवचनासार ६५ ११. 'कर्म ग्रन्थ' ३
१४. यथा भोजन विशेषं प्रक्षिप्ताना
विविधरसबीज पूष्पलतानामदिराभावेन
परिमाणः तथा पूदगलानामपि पात्मनि १२. जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, वाईली
स्थितानां योगकषायवशात परिणामो वेदितव्यः । ईस्टर्न लि. पृ० १५२
-तत्वार्यवार्तिक, पृ. २४६