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________________ जन कर्म सिवात मोमासा दर्शन के अनुसार-प्रत्येक कर्म मे अपूर्व कि-प्राणी को कर्म का त्याग नही करना चाहिये, किन्तु (पदृष्ट) को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है। कर्म से कर्म के फल का त्याग करना चाहिये । प्राणी का अधिकार मपूर्व उत्पन्न होता है और अपूर्व से फल उत्पन्न होता है। कर्म करने में ही है, फल मे नहीं।' महाभारत में भी मतः अपूर्व, कर्म और फल के बीच की अवस्था का मात्मा को बाधने वाली शक्ति को कर्म कहा है। बोतक है। कराचार्य ने इसीलिए भपूर्व को कर्म की गोस्वामी तुलसी दास ने भी रामचरित मानस मे कर्म को सूक्ष्मा उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था माना है। प्रधान कहा है, वेदान्त दर्शन के अनुसार कर्म से वासना उत्पन्न होती कम प्रधान विश्व करि राखा। है। और वासना से संसार का उदय होता है । विज्ञान जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। दीपिका मे यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार घर मे इस प्रकार भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त को तथा क्षेत्र में स्थित अन्न का विनाश विविध रूप से प्रमुखता दी गई है। लगभग सभी दर्शनिकों ने कर्म किया जा सकता है, किन्तु मक्त अन्न का विनाश पाचन । सिद्धान्त के विषय में अपने-अपने दष्टिकोण से विचार द्वारा ही होता है, परन्तु प्रारब्ध कर्म का क्षय भोग के प्रकट कर इसे जीवन दर्शन का प्रमुख माधार माना है। द्वारा ही होता है। जैन कर्म दर्शनबौद्ध धर्म मे भी, जो कि प्रनात्मवादी है कर्मों की जैन दर्शन में कम सिद्धान्त का जितना सविस्तार विभिन्नता को ही प्राणियो में व्याप्त विविधता का कारण विवेचन किया गया है, वह अन्य दर्शनो मे कर्म सिद्धान्त माना है। अगृतर निकाय मे सम्राट मिलिन्द के प्रश्नो के के विवेचन से कई गुना है। जैन वाङमय मे इस सम्बन्ध उत्तर मे भिक्ष नागसेन कहते हैं-'राजन" ! कर्मो के मे विपुल साहित्य भण्डार उपलब्ध है । प्राकृत भाषा का नानात्व के कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते। भगवान जैन ग्रन्थ 'महाबन्ध" कम सिद्धान्त पर विश्व का सबसे ने भी कहा है कि मानवो का सद्भाव कर्मों के अनुसार वहद ग्रन्थ है, जिसम चालीस हजार श्लोक है। इसके है। सभी प्राणी कर्मों के उत्ताधिकारी है । कर्मों के अनुसार अतिरिक्त षटखण्डागम गोम्मटसार कमकाण्ड, लब्धिसार ही योनियो में जाते है। अपना कर्म ही बन्धु है, प्राश्रय तथा क्षपणासार प्रादि कर्म सिद्धान्त विषयक वृहद ग्रन्थ है और वह जीव का उच्च और नीच रूप मे विभाग है। इस प्रकार जैन दशन मे कम को विशेष महत्व करता है। दिया गया है, तथा उसकी सूक्ष्म विवेचना की गई है। यही नही भारत के लगभग सभी प्रमख धार्मिक 'कर्म' का अर्थअन्थों में कर्म सिद्धान्त की महत्ता तथा प्रकृति का यथा मौलिक अर्थ की दृष्टि से तो कर्म का अर्थ वास्तव सम्भव उल्लेख मिलता है। गीता का मान्य सिद्धान्त है मे क्रिया से ही सम्बन्धित है। मन, बचन एव काय के १. नचाप्यनुत्पाद्य किमपि अपूर्व कर्म विनश्यत ७. 'महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा नसत्वे कालान्तरितं फलं दातुं शक्नोति । समंका। भासितं एतं महाराज भगवता कम्मरस मतः कर्मणो व सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलस्य कारणेन माणवसत्ता, कम्मदायादा कम्मयोनी, कम्मबन्धु कम्मपरिसरणा कर्म सत्तं विभजति वा पूर्वावस्था अपूर्वनामास्तीति तय॑ते । यदिदं होनप्पणीततायोति ।' -अगुस्सर निकाय शा. भा. २२।४. ८. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ ६. जैन कम सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. ४. -भगवद्गीता २७ ९. 'कर्मणा बध्यते जन्तुविद्यया तु विमुच्यते', -महाभारत-शान्तिपर्व (२४०१७)
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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