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महेश्वरने ७० बार शास्त्रार्थ में प्रसिद्ध प्रतिवादियों पर विजय रानी, उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी देवी, पोयसल सेठ को प्राप्त की। लेख क्रमांक ३६० मे कहा गया गया है कि माता शान्ति कम्बे, गंगराज की माता पोचब्बे प्रथवा पोचि. पण्डिताचार्य चारुकीति का यश इतना प्रशस्त था कि चार्वाकों कब्बे, गंगायी, चन्द्रमोलि मंत्री की माता प्रक्कम्वे, नागदेव को अपना अभिमान , सांख्य को अपनी उपाधिया, भट्ट को की पत्नी का कामल देवी के नाम विशेष उल्लेखनीय है। अपने सब साधन एवं कणाद को अपना हठ छोड़ना पड़ा। श्रवणबेलगोल के शिलालेखों मे उत्कीर्णकर्ताओं ने
कत्तले बसदि के लेख क्रमांक ७६ में प्राचार्य गोपनन्दि शूरवीर तथा रण-कुशल एव रण-बांकुरे वीरों को अनेक को शास्त्रार्थ प्रतिमा के विषय में कहा गया है। प्रन्य मतों उपाधियो से विभूषित कर उनके प्रति अपने हृदय का के विद्वानों की अपेक्षा में उन्हें मनि पुंगव कहा गया है। प्रादर प्रदर्शित किया है। अनेक शूरवीरो को तो एक साथ शिलालेख का भावार्थ है कि उस प्रखर विद्वान के सम्मुख कई-कई उपाधियों से विभूषित किया गया है। जो मत्तगज के समान है जैमिनी, सुगत, प्रक्षपाद, लोकायत अनेक शिलालेखो मे उन करो के नाम भी दिए गए एवं सांख्य जैसे विरोधी हाथी भी मातंकित हो गए, परास्त हैं जिन्हें श्रवणबेल्गोल की तीर्थ रक्षा, मन्दिरो के जीर्णोद्धार,
ए. लज्जा से मुंह बचा कर भाग गए प्रादि । प्रचुर प्रहरियों व कर्मचारियों के वेतन भुगतान तथा तीर्थसिद्धान्त-ज्ञान एवं विशेष तर्क शक्ति पर आधारित जैन व्यवस्था प्रादि के लिए लगाया गया था। साधनों को शास्वार्थ श्रेष्ठता ही उनकी ११वी से १४वी श्रवणबेल्गोल के इन शिलालेखों में दक्षिण के अनेक शताब्दी के मध्य पनपे प्रबल धार्मिक विरोध से उनकी राजवशों राष्ट्रकट वश, गंगवश, कल्याण के चालुक्य वंश, रक्षा कर सकी। कहा जाता है कि उनके तप एवं ध्यान द्वारसमुद्र के होयसल वश, विजयनगर के राजवश, मैसूर के प्रभाव से सिद्धि रूप में प्रलोकिक चमत्कार भी उत्पन्न नगर के प्रोडेयार राजवंश, चगलव वंश, नुग्गेहल्लि के हो जाते थे। सन् १३६८ में सिद्धर बसदि के स्तंभ पर तिरूमल नायक कदम्ब वश के नरेश कदम्ब, नोलम्ब एव उत्कीर्ण प्रत्यन्त विस्तृत शिलालेख क्रमांक ३६० मे वर्णन पल्लव वंश, चोलवंश, निडगलवंश पादि के नरेशों तथा है कि चारुकीति पण्डित मृतप्रायः राजा बल्लाल को स्वस्थ उनके प्रमात्यो, सेनापतियो एव श्रेष्टियों के सम्बन्ध मे कर "बल्ला जीव रक्षक" उपाधि से विभूषित हुए थे। सन भनेक उल्लेख मिलते है जिनसे उनके जैनधर्म प्रेम, १४३२ के एक अन्य विस्तृत शिलालेख क्रमांक ३६४ मे, पराक्रम, साहस, शौर्य, समरकुशलता, विद्वत्ता, दानशीलता जो सिद्धर बसदि के बाए स्तभ पर उत्कीर्ण है, कहा गया प्रादि पर यथेष्ट सामग्री उपलब्ध होती है। है कि उनके शरीर को छूकर जो वायु प्रवाहित होती थी होयसल वंश से सम्बन्धित शिलालेखों की संख्या इस बह रोगों को शान्त कर देती थी। किन्तु यह उल्लेखनीय प्रकार के शिलालेखों में सबसे अधिक है। विष्णवर्धन के है कि जैन साधकों तथा साधुषों ने धर्म प्रचार अथवा काल के सन् १९१३ से ११४५ के मध्य उत्कीर्ण १० लेख, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कभी भी चमत्कार जिन पर समय अकित नहीं है उसके समय के ८ लेख, अथवा मंत्र-तंत्र को साधन नहीं बनाया। यह दूसरी बात नरसिंह प्रथम के काल के सन् ११५६ एवं ११६३ मे है कि उनके तप एवं ध्यान के प्रभाव के कारण अलौकिक उत्कीर्ण ३ लेख, जिन पर समय अकित नही है उसके काल चमत्कार घटित हो जाते थे जिससे राजा तथा प्रजा के ऐसे-ऐसे लेख, बल्लाल द्वितीय के काल के सन् ११७३, प्रभावित होते थे।
११८१ एवं ११९५ मे उत्कीर्ण ५ लेख तथा जिन पर शिलालेखों में अनेक महिलापों का उल्लेख भी हमा काल अंकित नहीं है उसके समय के ऐसे तीन लेख. है जो राजवंश, सेनापतियों, मंत्रियों, तथा अष्ठियों के नरसिंह देव द्वितीय के काल के सन् १९१७ से १२७३ के परिवारों से सम्बन्धित थीं। इनमें उनके द्वारा किये गए मध्य उत्कीर्ण ६ लेख, तया १२वीं शती में उत्कीर्ण २३ निर्माण कार्य, पार्मिक कृत्यों समाधिमरण मादि का वर्णन तथा १३वीं शती में उत्कीर्ण ४ अन्य लेख यहां मिलते हैं। है। इनमें होयशल नरेश विष्णवधन की पलि शान्तशा राष्ट्रकूट वंश के नरेशों, कम्बय्य एवं इन्द्र चतुर्थ के माठवीं