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________________ भवणबेलगोल के शिलालेख तथा दसवीं शताब्दी के २ लेख, गंगवंश के सत्यवाश्य यातनाएं दी गई तथा उनका वध भी कराया गया किंतु यह पेरमानडि, रायमल्ल द्वितीय, एरेगंग द्वितीय तथा मारसिंह सत्य प्रतीत नही होता। उनके धर्म परिवर्तन के पश्चात भी द्वितीय मादि के नौवीं एवं दसवीं शताब्दी के १० लेख, उनकी प्रमुख पत्नी रानी शांतला जैन धर्मावलम्बीही बनी विजयनगर साम्राज्य के शासकों बुक्कराय प्रथम, हरिहर रही पौर अपने पति की स्वीकृति से अनेक जैन मन्दिरों द्वितीय, देवराय प्रथम तथा देव राय द्वितीय के ६ लेख, तथा जैनों को भेंट मादि देती रहीं। उनके जैन धर्मावमैसूर के प्रोडेयार राजवंश के चामराज सप्तम, दोडदेव- लम्बी मत्री गगराज भी उनके विशेष कृपापात्र बने रहे राज, चिक्कदेवराज, दोडुकृष्णराज प्रथम, तथा कृष्णराज तथा उनसे भेंट में वाप्त गांवों को गंगराज ने जैन बसदियों तृतीय के ६ लेख, चंगल्व वश के चगल्व महादेव का सन् की व्यवस्था के लिए सौप दिया। जह! शांतला रानी ने १५८६ का १ लेख, नुग्गेहाल के तिरुमल नायक का हैलेबिड मे तीन सुन्दर जैन मन्दिरों पाश्र्वनाथ बसदि, सोलहवीं शती का १ लेख, कदम्ब वंश के कदम्ब राजा प्रादिनाथ बसदि तथा शातिनाथ बसदि का निर्माण कराया का नोवी शताब्दी का एक लेख, शकर नायक (पल्लव) उन्होने अपने पति के साथ हेलेबिड में ही विश्व प्रसित के १३वी शती के २ लेख, चोलवंश के चोल पेमंडि का होयसलेश्वर - शांतलेश्वर नामक प्रत्यन्त कलात्मक सयुक्त १८वी शती का १ लेख तथा १२वी शताब्दी के ३ लेख शैव मन्दिर का भी लगभग सन् ११२१ मे निर्माण पूर्ण तथा निगम वंश के इरुगोल के १२वी शती के २ लेख करवाया। यह उन पति-पत्नी की धर्म सहिष्णुता का यहा उत्कीर्ण है। भली-भांति परिचायक है। यह धर्म सहिष्णुता न केवल उपरोक्त शिलालेखो के प्रतिरिक्त सैकड़ो ऐसे शिला- उन दोनो के काल तक ही विद्यमान रही भपितु उनके लेख भी है जिनमे उपरोक्त वणित वंशों के साथ-साथ वैष्णव उत्तराधिकारियों, नरसिंह प्रथम (सन् ११४३अन्यान्य अनेक वंशो के नरेशो, मंत्रियों, सेनापतियो भादि ७३), वीर बल्लाल द्वितीय (११७३-१२२०) तथा के नामो, कृतित्व प्रादि का उल्लेख हुमा है। नरसिंह तृतीय (मन् १२५४ - ६१) प्रादि ने भी जैन होयसल काल के लेखो में सबसे अधिक वर्णन हुप्रा है मदिगे के निर्माण में सहयोग तथा जैन प्राचार्यों के संरक्षण नरेश विष्णुवर्धन, उनकी पत्नी शान्तला, उनके मंत्री द्वारा उसका भली-भांति निर्वाह किया। गंगराज तथा नरेश नरसिंह देव द्वितीय का। प्रतापी शिलालेख क्रमसंख्या ८२ एवं ५०२ में विष्णुवर्षन को होयसल नरेश जैन धर्म के पालन एव स रक्षण के लिए महामण्डलेश्वर, त्रिभुवन मल्ल, तलकाविजयेता, भुजबलप्रसिद्ध रहे है। विनयादित्य द्वितीय (१०४७ -११००) वीरगंग-विष्णवर्घन होयसल देव प्रादि उपाधियों से इस वंश का ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध प्रथम नरेश था विभूषित किया गया है। अनेक शिलालेखों में जैसा कि जिसे राज सता, शक्ति एव यश जैन साधु शातिदेव के ऊपर वर्णन किया गया है, उनसे प्राप्त गांवों को उनके पाशीर्वाद से प्राप्त हुए थे। वह जैन धर्मावलम्बी शासक प्रत्यन्त विश्वामपात्र तथा स्नेहपात्र मंत्रि एव सेनापति था। माने राज्यकाल (११११-११४१) के प्रारभिक गंगराज ने जैन बसदियों की व्यवस्था केलिए भेंट कर वर्षों में होयसल वश के सबसे प्रतापी एव यशस्वी नरेश दिया था। विष्णवर्धन जैन धर्मावलम्बी ही थे और उनका नाम था प्रनेक शिलालेखो मे शातला रानी के विषय मे विविध बिट्रिगदेव अथवा विट्टिदेव । रामानुजाचार्य के प्रभाव से उल्लेख हुए हैं। उनसे उसके सीदयं, नत्य एवं कला प्रेम, शैव धर्म अंगीकार कर लेने के पश्चात् उन्होंने विष्णवर्धन जैन धर्म एव साधुनो मे प्रास्था तथा उसके द्वारा मन्दिर नाम धारण किया। उनसे पूर्व सभी होयसल नरेश जैन निर्माण प्रादि के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। धर्मानुयायी ही थे। कहीं-कहीं पश्यत्र यह उल्लेख हुमा है अपनी प्रतिभा, कला प्रेम तथा सौन्दर्य के कारण बह कि धर्म परिवर्तन के पश्चात वह रामानुजाचार्य के प्रभाव विष्णुवर्धन को सभी रानियो में सबसे अधिक प्रिय पी। से जनों के प्रति कठोर रहे उनके द्वारा जैनों को शारीरिक अन्य रानियों (सोतों) में मत्तगज के समान उसका
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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