SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (सन् १८१०) में प्रतिष्ठापित कराई तो उस समय यही कहा गया था कि क्योंकि पोसमपुर का मूल विषह (उत्तर कुक्कुटेश्वर जिम) अदृश्य एवं प्रप्राप्य हो चुका है, प्रतः उसके स्थानापन्न रूप से इस दक्षिण-कुमकुटेश्वर-जिन को स्थापना की गई है। यतः महाराज चामुणराय का पर नाम गोम्मट या गोम्मटराय था, यह मूर्ति कालान्तर मे गोम्मटेश या गोम्मटेश्वर बाहबलि के नाम से विख्यात हुई। फिर तो शनैः-शन: गोम्मट भी बाहुबलि का पर्यायवाची बन गया । चिरकाल तक यह समझा जाता रहा कि बाहुबली मूर्तियों में श्रवणबेल्गोलस्थ गोम्मटेश्वरही सर्वप्राचीन हैं और अन्य समस्त उपलब्ध बाहुबलि प्रतिमाएं उसके पश्चात् तथा उसी के अनुकरण पर निमित हई। किन्तु यह धारणा मिया मिद्ध हुई। उसके पूर्व की भी अनेक बाहुबलि मूर्तियाँ उपलब्ध है - चम्बल क्षेत्र में मन्दसौर जिले के घुस ई स्थान से प्राप्त बाहुबलि मूर्ति ४थी-५वी शती ई. को प्रनुमान की गई है, बादाम की ६ठी-७वी शती की, एलोरा को ८वी.वी शती की, मध्य की गुहरबसदि मे तोलपुरुष विक्रम सान्तर द्वारा प्रतिष्ठापित बाहुबलि मूति ८९८ ई० की है। महोबा, देवगढ़, श्रवणप्पगिरि पादि की कई मूर्तिया लगभग १०वीं शती की है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विशिष्ट शैली मे बाहबली मतियों के निर्माण की परम्परा श्रवणबेल्गोल की मूर्ति के निर्माणकाल से पांच-छ: शताब्दियो पूर्व तक पहुंच जाती है। उपलब्ध प्राचीन माहित्य मे भगवान बाहबली का सर्वप्रथम उल्लेख भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के भावपाहह की गाथा ४ में प्राप्त होता है बेहाविचससंगो माणफसायेण कलुसिमो पीर। प्रसाषणेण जावो बाहवली कित्सियकालं ॥ जिससे स्पष्ट है कि देहादि समस्त परिग्रह से मुक्त हो जाने पौर दीर्घकाल तक भातापन योग से एक ही स्थान मे पचल खड़े रहने पर भी मानकषाय से मन के रबित होने के कारण बाहुबली को सिद्धि नही हो पा रही थी। प्रथम शती ई० मे विमलसूरि द्वारा रचित प्राकृत पउमचरिउके उद्देशक-४, गाथा३६-५५ मे बाइबलोवत्त दिया है-उसमे उन्हें तक्षशिला का स्वामी बताया है। पराजित भरत ने बाहवलीको वैराग्य से विरत करने के लिए समस्त राज्य उन्हे सौंप देने का प्रस्ताव भी किया बताया है। वह एक वर्षका कायोत्सर्ग योग धारण करके स्थिर हुए थे, यह भी लिखा है, किन्तु उनके मन के किसी शल्य या विकल्प का उल्लेख नही किया। रविषेणाचार्य ने पद्मपुराण (६७६ ई.) के पर्व ४, पद्य ६७-७७ में बाहुबलि को पौदनपूर का नरेश सचित किया है। उनके ग्रहम् भाव का भी संकेत किया है और उभय सैम्य को अलग रख कर परस्पर विविध द्वन्द्व युद्ध (दृष्टि-जल-बाहु) का तथा अन्त मे बाहुबलि के विरक्त होकर एक वर्ष तक मेह पर्वत के समान निकम्प खड़े रह कर प्रतिमायोग धारण करने का उल्लेख किया है। यह भी लिखा है जिनके पास अनेक बामियां लग गई जिनके बिलों से निकले बड़े-बड़े मपों पौर श्यामा प्रादि की लतामों ने उन्हें वेष्टित कर लिया था-इस दशा में उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुपा तथा यह कि इस प्रवसपिणी मे उन्होने ही सर्वप्रथम मोक्षमार्ग विशुद्ध किया । जिनसेन पुण्नाट के हरिवशपुराण (७८३ ई.) के सर्ग ११ (पृ. २०२-२०५) में भी बाहबनीको पोदनपुर का स्वामी बताया है, बाहुबलीद्वारा भरत के प्रतिकूलता प्रकट करने पर दोनों का युद्ध के लिए
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy