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________________ पमुतप्त भरत की मनुहार पर भी ध्यान नहीं दिया और तत्काल वेशलाँच करके उन्होंने मनिदीक्षा लेली तथा एक वर्ष का कायोत्सर्ग योग धारण करके उसी स्थान मे मडिग-अचल तप:लीन हो गये। युद्ध पोत्तमपुर नगर के बाहर सीमान्त प्रदेश में हुमा था-वही योगिराज बाहुबलि पातापन पोमवारण करके स्थित हो गये। भगवान बाहनिस अभूतपूर्व युवर तपश्चरण के रोमांचक वर्षन प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य में प्रभूत मिलते हैं। इतना ही नहीं, उसकी स्मृति मे भ० बाहुबलि की जो मूतियो निमित हुई उनमें उन्हें ध्यानस्थ मुद्रा में अविचल खड्गासीन प्रदर्शित किया गया है। उनके इर्द गिर्द दीमकों ने ऊंची बाबिया बनाली, माधबीमादि लताएं उनके पैरों, हायों, कटि आदि के चहुंमोर लिपटती बढ़ती गई। शरीर पर सर्प, विच्छ, छिपकली मादि भनेक जन्तु रंगने लगे। मनुश्रुति है कि महाराज भरत ने ही उनकी इस रूप की सवा-पांच सो उत्तंग उस प्रतिमा उस तपः स्थान पर ही निर्मापित कराकर प्रतिष्ठित की थी। कलान्तर में उक्त मूर्ति को कुक्कुट सपो ने ऐसा प्राच्छादित कर दिया कि वह लोक के लिए प्रदश्य हो गई। भट्टारक बाहुबलि की मूर्तियां प्राय: इसी रूप एवं मुद्रा में निर्मित हुई और उन्ही से वे पहिचानी जाती है। ध्यानस्थमुद्रा भोर खड्गासीन तन पर लिपटी माधवी पादि लताएँ तो सर्वत्र प्रदर्शित हैं, कुछ मे बांबियां भी प्रदर्शित हैं, कुछ में शरीर पर रंगते सर्व, विच्छ मादि जन्तु भी अंकित हैं। एक मूति के साथ यक्ष-यक्षि अंकित किए गये प्रतीत होते हैं, यपि बाहुबलि तीर्थकर नही थे और यम-यक्षि अंकन तीर्थकर प्रतिमानों के परिकर मे किये जाने का विधान एव परम्परा है। कर्णाटक की चार प्राचीन मूर्तियों में श्रवणबेल्गोल वाली उत्तराभिमुखी है, कार्कल की पश्चिमाभिमुखो, वेणरु की पूर्वाभिमुखी पौर श्रवणप्पगिरि की दक्षिणाभिमुखी है। कुछ बाहुबलि मूर्तियों में उपासक-उपासिकाएं भी अंकित हैं, किन्तु चार मूतिया-श्रवणप्पगिरि, घुसई, देवगढ़ और महोबा की ऐसी है जिनमे बाहुबलि के दोनों पोर एक-एक स्त्री खड़ी है जो उनके मुख की पोर देखती, कुछ सम्बोधनसा करती हुई, तथा उनके शरीर पर लिपटी लता मादि हटाती हुई-सी लगती है। एक किंवदंती है कि जब एक वर्ष के प्रातापन योग से भी बाहुबलि के कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई तो समवसरण में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि से उसका कारण जानकर महासती ब्राह्मी तथा सुन्दरी ने माकर भाईको सम्बोषापा और कहाया कि 'हे भ्रात् ! मानरूपी गज से नीचे उतरो और स्वकल्याण करो।' सभव है कि इसी घटना का वह मूतोकन हो । कहा जाता है कि योगिराज बाहुबलि के मन में यह विकल्प रहा कि में भरत की भूमि पर ही खड़ा हूं। जिनसमाचार्य के अनुसार उनके मन में यह विकल्प रहा कि मेरे कारण भरत को कष्ट पहुंचा है। भरत को जब यह तथ्य ज्ञात हुमा तो उन्होंने पाकर बाहबलि की पूजा की पौर उनका समाधान किया। इस विषय में प्राय: सभी लेखक एकमत हैं कि बाहबलि के मन में कोई मानकषायजन्य ऐसा शल्य या विकल्प बना रहा जो उनको सिद्धि मे बाधक बना। भरत प्रषवा ब्राह्मी एवं सन्दरी के सम्बोधन से वह उस विकल्प से मुक्त हुए मौर तत्क्षण अपकश्रेणी पर पारुढ़ हो उन्होंने केवल. ज्ञान प्राप्त किया। भ. बाहबली की तप:स्थली तक्षशिला का बहिर्भाग पा या पोत्तनपुर का, इस विषय में मतभेद है। पोत्तनपूर की स्थिति का भी कोई पता नहीं है। बीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने अपनी जननी कलालदेवी की वर्षामेछा की पूर्ति के लिए स्वगुरु प्रजितसेनाचार्य एवं नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के निर्देशन में शिल्पीष्ठ परिष्टनेमि द्वारा श्रवणबेलगोल की विग्यगिरि के शिखर पर जब वह विश्वविक्षत ५७ फीट उत्तुंग विशालबालि प्रतिमा निर्माणकराकर पषुक्ल पंचमी रविवार महावीर निर्वाण सं. १५०६
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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