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भगवान महाबोर को मध्यात्म-देशमा
गुप्ति मादि पाचरण रूप सम्यक चरित्र-यह व्यवहार खास बात नहींहै किन्तु जो अजीवाश्रित परिणमन जीव के रत्नत्रय, यदि निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति में सहायक है साय बुलमिलकर भनित्य सम्बन्धी भाव से तादात्म्य तो वह परम्परा से मोक्षमार्ग होता है । व्यवहार रलत्रय जैसी प्रवस्था को प्राप्त हो रहे हैं उन्हें प्रजीब मानना की प्राप्ति भनेक बार हई परन्तु निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति सम्यक्त्व की प्राप्ति मे साधक है। रागादिक भाव अजीर के बिना वह मोक्ष का साधक नही बन सकी।
हैं, यह बात यहां तक सिद्ध की गई है। निश्चय रत्नत्रय प्रात्मा से सम्बन्ध रखता है। इसका यहाँ 'मजीव है इसका इतना ही तात्पर्य है कि वे अर्थ यह नहीं है कि वह मोक्षमार्ग में प्रयोजन भूत जीवा- जीव की स्वाभाविक परिणति नहीं। यदि जीव की जीवादि पदार्थों के श्रद्धान और ज्ञान को नथा व्रत समिति स्वभाव परिणति होती तो त्रिकाल मे भी इनका प्रभाव गुप्ति रूप पाचरण को हेय मानता है। उसका अभिप्राय नही होता, परन्तु जिस पौदगलिक कर्म की सवस्था में ये इतना ही है कि इन सब का प्रयोजन प्रात्मश्रद्धान, ज्ञान भाव होते है उसका प्रभाव होने पर स्वयं विलीन हो पौर प्राचरण मे ही सनिहित है अन्यथा नही। इसलिये जाते है। सबको करते हुए मूल लक्ष्य की पोर दृष्टि ररखना चाहिये। संसारचक्र से निकल कर मोक्ष प्राप्त करने के प्रभि
नव पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकृत करते हुए लाषी प्राणी को पुण्य का प्रलोभन अपने लक्ष्य से भ्रष्ट कर कुन्दकुन्द स्वामी ने सम्यग्दर्शन की परिभाषा इस प्रकार देता है, इसलिये पानव पदार्थ के विवेचन के पूर्व ही इसे की है
सचेत करते हुए कहा गया है कि "हे ममक्ष प्राणी! तू भयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपार्व च। मोक्ष रूपी महानगर की यात्रा के लिये निकला है। देख, प्रासवसंवरणिज्जरबधो मोक्खो य सम्मत्त ॥१३॥ कही बीच मे पुण्य के प्रलोभन में नहीं पड़ जाना। यदि
मूलार्थ-निश्चय से जाने हुए जीव, मजीव, पुण्य, उसके प्रलोभन मे पड़ा तो एक झटके मे ऊपर से नीचे मा पाप, प्रास्रव, सवर, निर्जरा, बध मोर मोक्ष ये नो पदार्थ जायेगा पौर सागरो पर्यन्त के लिये उसी पुण्य महल में सम्यग्दर्शन हैं । यहाँ विषय और विषयी मे प्रभेद करते नजर कैद हो जायेगा । दया, दान, व्रताचरण पादि हुए नौ पदार्थों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। वस्तुतः भाव लोक मे पुण्य कहे जाते है और हिंसादि पापों में ये मम्यग्दर्शन के विषय हैं।
प्रवृत्तिरूप भाव पाप कहे जाते है। पुण्य के फलस्वरूप __ जीव' चेतना गुण से सहित तथा स्पर्श, रस, गन्ध, पुण्य प्रकृतियो का बन्ध होता है और पाप के फलस्वरूप वर्ण मौर शब्द से रहित है। जीव के साथ प्रनादि काल पाप प्रकृतियो का। जब उन पुण्य पाप प्रकृतियो का उदयसे कर्म-नौकर्म रूप पुद्गल का सम्बन्ध चला भा रहा है। काल पाता है तब जीव को सुख-दुख का अनुभव होता मिथ्यात्वदशा मे यह जीव, शरीर रूप नो कर्म को परिणति है। परमाचं से विचार किया जाये तो पुण्य पोर पाप को प्रात्मा की परिणति मानकर उसमे अहंकार करता दोनों प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध इस जीव को स है-"इस रूप में हूं' ऐसा मानता है। इसलिये सर्वप्रथम ही रोकने वाला है। स्वतन्त्रता की इच्छा करने वाला इसकी शरीर से पृथकता सिद्ध की जाती है। उसके बाद मनुष्य जिस प्रकार लोहशृंखला से दूर रहना चाहता है।" ज्ञानावरणादि द्रव्य कम और रागादि भाव कर्मों से सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के इच्छुक प्राणी को बन्धन इसका पृथकत्व दिखाया जाता है। कहा गया है-हे की अपेक्षा पुण्य और पाप को एक ममान मानना भावभाई ! ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणमन से निष्पन्न हैं, तू श्यक है सम्यग्दर्शन, पुण्य रूप माचरण का निषेध नहीं इन्हे जीव क्यो मान रहा है ?
करता किन्तु उसे मोक्ष का साक्षात् कारण मानने का जो स्पष्ट ही मजीव है उनके पजीब कहने में कोई निषेध करता है। सम्यग्दष्टि जीव, अपने पद के अनुरूप १. परसमलवग, प्रवत्त चेदणामुणमसह ।
जाण पलिंगरगहणं जीवनणिट्ठि संठाण ॥४६॥ -समयसार, कुन्दकुन्द