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५, बर्ष १३, कि. १
अनेकान्त
पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इन्द्र, वृक्ष को उखाड़ना है तो उसके पत्ते नोंचने से काम नहीं चक्रवर्ती प्रादि के वैभव का उपभोग भी करता है, परन्तु चलेगा, किन्तु उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। रागश्रद्धा में यही भाव रखता है कि हमारा यह पुण्याचरण द्वेष की जड़ है भेद विज्ञान का प्रभाव । प्रतः भेदविज्ञान के मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है और उसके फलस्वरूप द्वारा उन्हे अपने स्वरूप से पृथक समझना, यही उनको जो वैभव प्राप्त होता है वह मेरा स्वपद नही है। नष्ट करने का वास्तविक उपाय है। मोक्षाभिलाषी जीव
संक्षेप में जीव द्रव्य की दो अवस्थायें है-एक ससारी को इस भेदविज्ञान की भावना तब तक करते रहना चाहिये भौर दूसरी मक्त। इनमे संसारी अवस्था अशुद्ध होने से जब तक कि ज्ञान, ज्ञान में प्रतिष्ठित नही हो जाता। हेय है और मक्त अवस्था शुद्ध होने में उपादेय है। ससार सिद्धों के प्रनन्तवें भाग और प्रभव्य राशि से अनन्त का कारण प्रास्रव और बन्ध तत्व है तथा मोक्ष प्रवस्था गुणित कर्म परमाणुगों की निर्जरा संसार के प्रत्येक प्राणी का कारण सवर और निर्जरा है। प्रात्मा के जिन भावों के प्रति समय हो रही है, पर ऐसी निर्जरा से किसी का से कम माते है उन्हे मानव कहते है। ऐसे भाव चार हैं कल्याण नहीं होता, क्योकि जितने कर्म पर परमाणुप्रो को १ मिथ्यात्व, २ अविरमण, ३ कषाय और ४ योग । इन निर्जरा होती है उतने ही कम परमाण मानवपूर्वक बन्ध भावों का यथार्थ रूप समझकर उन्हें पारमा से पृथक करने को प्राप्त हो जाते है। कल्याण, उस निर्जरा से होता है का पुरुषार्थ सम्यग्दृष्टि जीव के ही होता है।
जिसके होने पर नवीन कर्म परमाणु पो का प्रास्रव और प्रास्रवतत्व का विरोधी तत्व सबर है प्रत अध्यात्म बन्ध नहीं होता। ऐसी निर्जरा सम्यग्दर्शन होने पर ही ग्रन्थो मे प्रास्रव के प्रनन्तर संवर की चर्चा पाती है।' होती है। भास्रव का रुक जाना सवर है। जिन मिथ्यात्व, अविर- सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्दष्टि जीव का प्रत्येक मण, कषाय और योग रूप परिणामो से प्रास्रव होता है कार्य निजंरा का साधक हो जाता है। वास्तव मे सम्यग्दृष्टि उनके विपरीत सम्यक्त्व, सयम निष्कषाय वृत्ति और योग जीव के ज्ञान और वैराग्य को अदभुत सामर्थ्य है। जिस निग्रह रूप गुप्ति से संवर होता है मध्यात्म मे इस संवर प्रकार विष का उपभोग करता हा वंद्य मरण को प्राप्त का मूल कारण भेदविज्ञान को बताया है। कर्म और नो. नही होता और प्रतिभाव से मदिरा पान करने वाला कर्म तो स्पष्ट ही प्रात्मा से भिन्न है, अतः उनसे भेद- पुरुष मद को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि विज्ञान प्राप्त करने मे महिमा नही है। महिमा तो उन जीव भोगोपभोग मे प्रवृत्ति करता हुमा भी बन्ध को रागादिक भाव कमो से अपने ज्ञानोपयोग को भिन्न करने प्राप्त नहीं होता। सुवर्णदतीचड़ मे पड़ा रहने पर भी में है, जो तन्मयी भाव को प्राप्त होकर एक दिख रहे है। जंग को प्राप्त नही होता और लोहा थोडी मी सदं पाकर मिथ्यादष्टि जीव, इस ज्ञानधारा पीर मोहवाग को भिन्न- जंग को प्राप्त नहीं हो जाता है। यह सुवर्ण और लोहा की भिन्न नहीं समझ पाता, इसलिये वह किसी पदार्थ का अपनी-अपनी विशेषता है। ज्ञान होने पर उसमे तत्काल राग-द्वेष करने लगता है, यद्यपि प्रात्मा और पौदगलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र परन्तु सम्यग्दष्टि जीव उन दोनो पाराम्रो के अन्तर को द्रव्य है और दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम समझता है इसलिए वह किसी पदार्थ को देखकर उमका । जैसा अन्तर है, फिर भी अनादिकाल से इनका एक क्षेत्रावगाह ज्ञाता द्रष्टा तो रहता है परन्तु रागी-द्वेषी नही होता। रूप संयोग बना रहा है। जिस पकार चुम्बक मे लोहा जहाँ यह जीव, रागादि को अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव मे को खींचने की और लोहा मे खिच जाने की योग्यता है अनुभव करने लगता है वही उनके सम्बन्ध से होने वाले उसी प्रकार प्रात्मा मे कर्म रूप पुद्गल को खीचने की राग-द्वेष से बच जाता है ।।
और कर्म रूप पुद्गल में खिचे जाने की योग्यता है। राग-द्वेष से बच जाना ही सच्चा संवर है। किसी अपनी अपनी योग्यता के कारण दोनों का एक क्षेत्रावगाह १. पाश्रवनिरोधः संवरः । तत्वार्थ सूत्र-गपिच्छाचार्य