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१०, वर्ष ३३, कि०३
अनेकान्त
खेती, काड़े धोने व रणने में दोष, हलवाई का भोजन पडित प्रवर टोडरमलजी द्वारा जैन शास्त्रो के करने में दोष, कांजी, पाचार, जलेबी, शहद खाने व अन्य सिद्धांतो के प्रचार से भट्टारक परम्परा को स्वत. जबरदस्त व्यक्तियों के माथ बामिल जीमने मे दोष, रजस्वला स्त्री धक्का लगा किन्तु यह भट्रारक परम्परा क्या थी भोर के साहचर्य प्रादि में दोप।
क्यो बुरी थी इसका विस्तृत वर्णन १० टोडरमलजी के इममे दूध, घी, छाल व घृत को किस प्रकार मर्यादित ग्रंथों में भी नहीं मिलता। पं० टोडरमलजी के ही प्रेरक प से रखना चाहिए इसका भी वर्णन है। इन्होने दूध की पं० रायमल जी ने अपने इस ग्रथ मे भट्रारको की शास्त्र मर्या। दो घडी बताई है, दूध निकालने के दो घडी भीतर विरुद्ध चर्चामों का यथावसर विस्तृत वर्णन किया है इसमे पी लेना चाहिए या गरम कर लेना चाहिए, नही तो उसमे हमें उनके सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उसकाय के जीवो की उत्पत्ति होना लिखी है। इसी प्रकार भट्टारकों एवं उनके प्राश्रित 'पाण्डे' लोगो की दही का उपयोग पाठ प्रहर मे कर लेना चाहिए। प्राहार रचनाओं में भट्टारक का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता के विभिन्न पदार्थों के उपयोग की अवधि के सबध में है। उन्हें प्राचार्यों उपाध्यायों, मुनियों का प्रमुख उल्लेग अठारहवी शताब्दि के अन्य दो क्रियाकोषो में भी प्राध्यात्मिक मण्डलाचार्य, पूर्ण सयमी साघु, महाव्रती मादि मिलते है, इनका प्राचीन प्राधार क्या रहा है यह प्रादि बताया गवा है । संभवत: उस समय उनसे प्रभावित देखने मे नही पाया फिर भी इन मर्यादानों को सत्यता व प्राश्रित लोग उन्हे उमी रूप में मानते भी हों, किन्तु माज वैज्ञानिक परीक्षणो से सिद्ध की जा सकती है। जैनागम के शास्त्रीय माधार पर वे साधु तो दूर क्षुल्लक मनल ने पानी, रात्रि मे भोजन या मर्यादा काल के बाद ऐलक भी नही ठहरते। उन पाचरणों के प्राधार पर तो के भोजनो के वैज्ञानिक परीक्षण कर सिद्ध करना प्रावश्यक उन्हें सच्चा श्रावक कहने में भी संकोच होगा। माज के है कि इनमे क्या-क्यादोष हैं। प्राज मेलों, मदिरो के नाम इतिहासकार को इन अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनो का उल्लेख पर ऐसे स्थान पर भी लाखो रुपए खर्च किए जाते है जहाँ करने के साथ इनको शास्त्रीय स्थिति का उल्लेख अवश्य इनकी कतई भावश्यकता नही है। यदि यही रुपया इन करना चाहिए ताकि पाठक को सही जानकारी मिले वैज्ञानिक परीक्षणो मे लगाया जाय तो जैन धर्म की सच्ची अन्यथा इनके मात्र प्रतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनो एक विशेषणों प्रभावना होगी एव उससे समस्त विश्व को जैन पाहार के उल्लेग्व मे दिगम्बर साधु चर्या के सम्बन्ध मे लोगों की चर्या की वैज्ञानिकता ज्ञात होगी। हमारी प्रखिल गलत धारणा होगी। इस प्रसग मे 'वीर शासन के भारतीय संस्थानों को इस पोर ध्यान देना चाहिए। प्रभावक गाचार्य' शीर्षक पुस्तक उल्लेखनीय है जिसके भारतीय एवं विदेशी वैज्ञानिको का ध्यान भी इस सम्बन्ध वर्णनो के अनुसार भट्टारक को पूर्णतः सयमी (पृष्ठ ११७) मे भाकर्षित करना चाहिए । साहित्य के शोध के साथ- महाव्रतियो के नायक (पृष्ठ ११८) साधु (पृ० १२०) साथ जैन पाहार चर्या को वैज्ञानिकता सिद्ध किए जाने बताया गया है । कुंदकुद उमास्वामी, समंतभद्र, प्रकलकादि को प्रावश्यकता हम भुला नही सकते।
महान प्राचार्यों को कोटि में ही रखकर इनका वर्णन जैन मंदिरों में प्रज्ञान व कषाय के कारण होने वाले किया गया है । भट्टारक के परिग्रह मादि का कोई उल्लेख ८४ म.सातना के दोषों का विस्तृत उल्लेख किया गया नहीं किया गया है। इससे भविष्य मे भट्टारक दिगम्बर है। इससे लगता है कि लोग उनके काल मे मंदिरों का साधु ही समझे जायेगे।। दुरूपयोग करने लगे थे और उनको वैयक्तिक निवास के इस प्रथ के भट्टारको सम्बन्धी कुछ उदरण माधुनिक रूप में मानने लगे थे। इसलिए वहां रहने, सोने व अन्य हिन्दी में परिवर्तित कर पाठकों की जानकारी के लिए कार्यो के करने का पूर्ण निषेध किया गया। इसमें कुलिगो, प्रस्तुत किए जाते है :श्वेताबर, भष्ट्रारको प्रादि के मत व चर्चा बता कर उनकी सत्पुरुष जिनधर्म की माराधना द्वारा एक मोक्ष को शास्त्र विरुद्धता सिद्ध की गई है।
ही चाहते हैं। वे स्वर्गादि भी नहीं चाहते तब उससे