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________________ जानानंद बावकाचार : एक परिचय इस प्रथम ग्रंथ की ख्याति पहले पं० टोडरमल जी किया गया है। इसमें मंगलाचरण के रूप में पंच परमेष्ठी द्वारा रचित के रूप में भी रही है। कई हस्तलिखित का स्वरूप भी प्रकाशित प्रथ के २६ पृष्ठों में दिया गया प्रतियों में लेखक के रूप में पडित टोडरमल जी का नाम है। वस्तुतः पच परमेष्ठी के सच्चे स्वरूप को श्रद्धा व रहा है इसलिए ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है; किन्तु समझ करने वाला ही अपना कल्याण कर सकता है। ऐसा इसकी भाषा एवं शैली पंडित टोडरमल जी जैसी नही है। व्यक्ति कुदेव, कुगुरु की श्रद्धा रूप गहीत मिथ्यात्व में नहीं प्रतः पं० मिलापचंदजी कटारिया ने जन सन्देश के फंसेगा यह तो निश्चित है उन्होने भगवान के उपदेश का शोधांक ८-७-६० में सिद्ध किया है कि पंडित टोडरमलजी इस प्रकार वर्णन किया है :कृत कोई श्रावकाचार नहीं है, फिर भी यह जरूर है रे भव्य जीवो! कुदेवों को पाने से अनंत संसार कि, ज्ञानानंद श्रावकाचार शब्दशः टोडरमलजी कृत न होने में भ्रमण करोगे और नरकाविक के दुःख भोगोगे और पर भी प्रर्थशः उनका माना जा सकता है क्योंकि प० व र unified गयमल्ल जी दोनों धार्मिक और साहित्यिक कार्यों में न काया में सहोगे निज स्वरूप को वाराधना करोगे तो नियम करि परस्पर एक-दूसरे के साथी थे। मोक्ष सुख को पावोगे।" २६२ पृष्ठ के प्रकाशित ग्रंथ में इसका नाम 'ज्ञानानद पाठक देखेंगे कि लेखक ने स्व के । श्रावकाचार' दिया गया है जबकि लेखक ने इसके न बताकर मंद क्लेश ही बताया है और मोक्ष सुख मंगलाचरण के बाद इसका पूरा नाम इस प्रकार लिखा को ही सुख कहा है जो लोग सामारिक सुखों के प्राकर्षण है-'ज्ञानानन्द पूरित निरभर निजरस श्रावकाचार ।' में पडकर कुदेवादि की भक्ति मे या अन्य देवों की भक्ति लोक मे इस बड़े नाम के बजाय ज्ञानानंद श्रावकाचार' मे ही लीन रह कर सन्तोष करते है वे वास्तविक सुख नाम ही अधिक प्रचलित है। पद्य श्लोक मे अनेक नही पाते। लेखक ने भक्ति व्रतादि में भी निज स्वरूप श्रावकाचार मिलते हैं किन्तु गद्य मे यह पहला श्रावकाचार एवं वीतरागता की महिमा को ही मुरूपता दी है। वस्तुत: देखने मे पाया है । लेखक प्रपने बाल्यकाल से ही विद्वानों प्रत्येक सम्यग्दृष्टि अपने गुणस्थानानुसार सच्चेदेव, शास्त्र के साथ चर्चा वार्ता एवं स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानार्जन करते गुरु की भक्ति एव व्रतादि का पालन करता है किन्तु रहे है। उन्होने उसी ज्ञान पोर अनुभव का इस ग्रंथ को उसका मूल लक्ष्य निज स्वरूप को प्राप्ति ही है। इसमे रचना में उपयोग किया है, वे इस रचना में भी अपने श्रावकाचारों के पारंपरिक वर्णनों-प्रष्टमूलगुण. सप्तव्यसन अनुभव ही का वर्णन करते हैं। इसीलिए उन्होंने ६ दोहो त्याग, बारह व्रत एव ग्यारह प्रतिमा प्रादि के सिवा अन्य मे मंगलाचरण कर प्रथम वाक्य इस प्रकार लिखा है, "इस उपयोगी, विवेकपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है जो प्रकार मंगलाचरण पूर्वक अपने इष्टदेव को नमस्कार कर अन्य श्रावकाचारों में सुलभ नहीं है किन्तु उसका ज्ञान ज्ञानानन्द पूरित निजरस नाम शास्त्र ताका अनुभव श्रावक के प्राचरणों में सुधार के लिए पावश्यक है। करूंगा।" इसमे जहा रात्रि भोजन का स्वरूप व दोष बताया इन्होंने पंडित टोडरमलजी को तरह विभिन्न प्रश्न गया है वहां रात मे चूल्हा भी जलाने के दोष बताये गये स्वयं उठाकर पाठकों के लिए उनका समाधान भी किया है। इसमे अनछने पानी को प्रयोग में लेने के दोष भी है। उन्होंने प्राचीन मान्य श्रावकाचारो एव प्रागम ग्रन्थों बताए गए हैं। सप्त व्यसनो मे प्रमुख व्यसन जुमा के का रहस्य साधारण पाठको के लिए प्रस्तुत कर वीतराग विशेष दोनों का वर्णन किया गया है। रसाई करन को धर्म प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। सावधानीपूर्ण विधि भी बताई गई है ताकि कम-स कम इस ग्रन्थ मे श्रावकाचारो की मान्य परम्परा के हिसा हो; इसमे निम्न वसायो एव क्रिपामो में मनुसार प्रष्ट मूलगुण, ग्यारह प्रतिमानों, बारह व्रतों, प्रसावधानी या सहज होने वाले दोषो का विवेचन किया सप्त व्यसन त्याग का पूर्ण विवरण सरल भाषा में प्रस्तुत गया है ताकि श्रावक इन दोषों से बचें :
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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