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ज्ञानानंद श्रावकाचार : एक परिचय
पं०बंशीधर शास्त्री, जयपुर
राजस्थान के कुछ मंदिरो में ढूंढारी में गद्य में लिखित ज्ञात हुमा कि यह समाधिमरण 'ज्ञानानंद प्रावकाचार' का समाधिमरण की प्रतियां मिलती हैं जिन पर लेखक का अश है। तत्पश्चात मैंने इस श्रावकाचार को पढ़ा। भाज नाम या परिचय नहीं मिलता है। चौमूं में इस समाधि- से ५१ वर्ष पूर्व श्री ईश्वरलाल किसनदास कापड़िया सूरत मरण का वाचन दशलक्षण के दिनों में किया जाता था। ने इसे मुद्रित किया था इसका दूसरा संस्करण देखने में मझे इसकी भाषा, शैली व भाव बहुत ही रुचिकर लगे। नहीं पाया। मैंने इसका हिन्दी अनुवाद भी किया था। कुछ वर्षों पूर्व इसके लेम्बक पं० रायमल्ल जो है जो पंडित प्रवर (पृष्ठ ७ का शेषांश)
टोडरमलजी के समकालीन ही नही अपितु उनके प्रेरक भी प्रवसेसा जे भावा ते मा परेत्ति णायब्बा ॥२६६॥' थे जैसा कि म्वयं पडित टोडरमल जी ने लिखा है
-समयसार (कुन्दकुन्दाचार्य) रायमल साधर्मी एक, धर्म सवैया सहित विवेक । सो उक्त सदर्भ से भी इसी बात की पुष्टि होती है कि नानाविध प्रेरक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो। प्राचार्य ने प्रात्मानुभति और जिनशासनानुभूति मे अभेद पंडित दौलतराम जी ने पद्मपुराण की प्रशस्ति मे दर्शाने के लिए १४वी गाथा को थोड़े फेर बदल के साथ इनके लिए इस प्रकार लिखा है : १५वी गाथा में भी प्रात्मा के वे सभी विशेषण दुहराए है रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घट मे स्वपर विवेक जो कि गाथा १४वी मे है।
दयावंत गुणवान सुजान, पर उपगारी परम निधान । इसे 'संत' शब्द मानकर, उसका शान्त प्रर्थ करना
दौलतराम सुताको मित्र, तासो भाष्यों वचन पवित्र, उचित नही जंचता। यत: जिस प्रात्मस्वरूप को यहाँ
पद्मपुराण महाशुभ प्रथ, तामे लोक शिखर को पन्थ । चर्चा है बह शान्त पोर प्रशान्त दोनो ही अवस्थामों से
भाषारूप होय जो यह बहुजन बाचे कर पति नेह, ताके रहित-परमपारणामिक भाव रूप है।
वचन हिए मे घार, भाषा कीनी मति अनुमार। इसी प्रकार अपदेश शब्द का प्रप्रदेशी मथं भी प्रागम
पडित दौलतराम जी ने हरिवंश पुगण में भी रचना विरुद्ध है यत: मात्मा निश्चय से प्रसंख्यातप्रदेशी व्यवहार
के लिए प्रेरक के रूप में श्री रायमल्ल जी के लिए से शरीर प्रमाणरूप प्रसख्यात प्रदेशी है । शरीरज्माणरूप प्रसंख्यात:।
लिखा है। उक्त सभी विचारों में मेरा प्राग्रह नही पाठक पं० रायमल्ल जी यावज्जीवन ब्रह्मचारी रहे मोर विचारें । ओ युक्ति-युक्त हो उसे ही ग्रहण करें।
सदा धर्म प्रचार शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व चर्चा, चितन-मनन 'मज्झ' का प्रथं मध्य होता हो ऐसा ही नहीं है। मे लीन रहने वाले थे। वे अन्य विद्वानों को शास्त्र रचना माचार्य कुन्दकुन्द ने इस शब्द का प्रयोग 'मेरा' पर्थ मे भी की प्रेरणा देते रहते थे। उनकी प्रेरणा से गोम्मटसार, किया है। प्रसंग मे 'मेरा' अर्थ से भी पूर्ण संगति बेठ लषिसार, क्षपणासार त्रिलोकसार, पद्मपुराण, हरिवश जाती है। 'मेरा' अर्थ में प्राचार्य के प्रयोग
पुराण मादि महान ग्रंथों की हिन्दी टीकाएँ लिखी गई। 'होहिदि पुणो वि मज्झ'-२१ 'ज भास मज्झमिण'-२४
उन्होंने स्वयं भी दो ग्रंथ लिखे, ज्ञानानन्द श्रावकाचार एवं 'मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं'-२५ --समयसार चर्चा साराश । प्रथम अथ एक बार प्रकाशित हो चुका है
0 जबकि दूसरा अभी भी मप्रकाशित ही है।