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________________ प्रतिमा की पृष्ठभूमि योग्य है। बाहुबली सुमेरु सदृश सुदढ हो रहे पौर निकम्प प्रतिमा बाहवली की योग-साधना : योग धारण किए है और प्रब पूर्णतया केवलज्ञानी हो गये प्रयम मुनि और प्रथम तीर्थकर महाप्रभु प्रादिनाथ ने है इसलिए चक्रवर्ती भरत उनको प्रशसा कर रहे हैछह माह के लिए प्रतिमा योग धारण किया था पर उनके पापकी एकाग्रता, पापका धर्य धन्य है। पापमे द्वितीय पुत्र बाहुबली ने एक वर्ष के लिए प्रतिमा योग माहारादि संज्ञायों सदश कोधादि चार कषायों को ही स्वीकार किया। इसके पहले भरत सम्राट ने छत खण्ड नही जीता बल्कि चार घातिया को को भी जीत लिया पृथ्वी जीत कर जो कीति उपाजित की, जिससे वे चक्रवर्ती और अनन्तदर्शन, शान, सुख और वीर्य के धनी हो गए। कहलाए, ऐसे भरतेश्वर की विजयलक्ष्मी दैदीप्यमान चक्र- स्वर्ग के देवता पोर मयंक के मनुष्य स्तुति कर रहेमूति के बहाने बाहुबलि के समीप या परन्तु वाहबलि ने पापने जमा धान किया वैसा ध्यान भला कौन कर उसे तणवत समझ कर छोड़ दिया। भरत क चक्र चलाने सकता, ध्यान-चक्रवर्ती योगीश्वर बाहबली तृतीय काल में का कारण यह था कि बाहुबली दृष्टि युद्ध जलयुद्ध और जन्मे, जीवन जिया, जोपन्मुक्त हुये पौर मुक्ति श्री का भल्ल युद्ध मे विजित हो चुके थे पोर उनके चक्र ने बाहुबली वरण भी किया । यद्यपि भगवान बाहबली तीर्थकर नही का बाल बांका भी नहीं किया था। थे तणागि उनकी प्रतिमाएँ कारकल, मूबिद्री, बादामि बाहवेली योग-साधना में लीन है। एक स्थान एक पर्वत संग्रहालय बबई, जूनागत खजुराह, लखनऊ, देवगढ़, प्रासन पर खड़े रहने का नियम लिए है। न पाहार है न तिलहरी, फिरोजाबाद, हस्तिनापुर, एलोग प्रादि मे है। बिहार पोर न निहार, न निद्रा है और न तन्द्रा, केवल यह उनके पतिम त्याग और पदभत तपश्चरण का ही ज्ञान है और ध्यान । एक से अधिक माह यो ही बीते। प्रभाव है जो बाज भी उनकी मूति की स्थापना से ममीप का स्थान वन-वल्लरियो से व्याप्त हो गया, उनके दिगम्बरस्व गौरवान्वित हो रहा है। चरणो के समीप सो ने वानिया बना ली। वामियो से महाश्रमण गोमटेश्वर बाहबली की दिगम्बर मति सों के बच्चे निकल रहे. उनके लम्बे-लबे केश कन्यों तक युग-युग तक प्रसंख्य प्राणियों को सुख और शान्ति, सन्तोष लटक रहे, फूली हुई बासन्ती लता अपनी शाखा रूपी पोर समृद्धि बन्धन मोर मुक्ति, भोग और योग स्वतन्त्रता भजायो से उनका प्रालिगन कर रही। और स्वामिभान का सन्देश देती रहेगी और मृष्टि को शिव बाहबदी महान अध्यात्म योगी है। इन्होंने शरीर से का मार्ग प्रणित करती रहेगी तथा प्रतीत की भांति पाज प्रात्मा को पृथक् समझ लिया है। ये अपनी आत्मा को भी अपने चरित्र और चारित्र का पुनरावलोकन करने के मनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख पौर वीर्यमय देख रहे है। मनन्त लिए प्रेरणा देती रहेगी। गुणो के पुजस्वरूप अपनी प्रात्मा का श्रद्धान, उसी का जब तक मूर्य और चन्द्र प्रकाश देते है, सरितायें ज्ञान और उगी मे तन्मयरूप चारित्र, यो ये भी निश्चय बहती है, सरोवर लहराते है, समुद्र उलित होते हैं तब रत्नत्रय रूप में परिणमन कर शुद्धोपयोग में लीन हो रहे तक भारतीय संस्कृति को ज्वलन्त उदाहरण जैसी पर कालान्तर में कभी उत्कृष्टतम शुभोपयोगी भी हो जाते गामटेश्वर बाहुबली की प्रतिमा का पूजन-अर्चन-वन्दन है। इन्होने ध्यान मोर तपश्चरण के बल से मति, श्रत करते हुये भक्तजन विद्यदेव नेमोचन्द्र सिवान्त चक्रवर्ती प्रवधि भोर मनः पर्यय चार ज्ञान प्राप्त कर लिए। चंकि के स्वर मे स्वर मिला कर कहते रहेगेये तपस्यामूलक श्रम से प्रणु भर भी मन मे खेद बिन्न नहीं परम दिगम्बर ईतिभीति से रहित विधि विहारी। है अतएव मात्मिक प्रालाद की उज्जल झलक इनके नाग समूहों से प्रावत फिर भी स्थिर मा पारी॥ सुमुख पर है। निर्भय निविकल्प प्रतिमायोगी को छविममताऊँ। शरीर पर लतायें चढ़ गई। मो ने वामियां बना गोमटेश के बोचरणों में पारावार झक बा।। ली। विरोधी वनचर प्रशान्त होकर विचरण कर रहे । २२, बजाजखाना, जावरा (म.प्र.)
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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