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३३, कि०४
बनेकात
जिसका हिन्दी भाषा में सरल अनुवाद निम्नलिखित है- भगवान बाहुबली को निरावर्णता को लक्ष्य कर भारत
जब मूति पाकार मे बहुत ऊँची और बड़ी होती है के सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर ने अतीव ममं. तब उसमे प्रायः सौन्दर्य का प्रभाव रहता है। यदि मूर्ति स्पर्शी हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, जो अक्षरशः प्रविकल बड़ी और सौन्दर्य भी हपा तो उसमे देवी चमत्कार माननीय हैहोना असम्भव लगता है परन्तु गोम्मटेश्वर (कामदेव और सांसारिक शिष्टाचार में फंसे हुए हम मूर्ति की भोर चामुण्डराय के देवता) बाहुबली की मूर्ति ऊँची-बड़ी सुन्दर देखते हो सोचने लगते हैं कि यह नग्न है। क्या नग्नता साश्चर्य-चमत्कारिणी है। दूसरे शब्दों मे ५७ फूट ऊंची वास्तव मे हेय है ? अत्यन्त प्रशोभन है ? यदि ऐसा होता होने से बड़ी है, सौन्दर्य मे अद्वितीय है और देवी चमत्कार- तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा पाती। फुल नंगे सम्पन्न है, प्रतएव यह प्रतिविम्ब सम्पूर्ण विश्व के व्यक्तियों रहते है। प्रकृति के साथ जिनकी एकता बनी हुई है. वे द्वारा दर्शनीय और पूजनीय है। इस तथ्य को समझ कर शिशु भी नंगे रहते है। उनको अपनी नग्नता मे लज्जा हो शायद कर्नाटक सरकार ने श्रवण बेलगोला को पर्यटन- नही लगती। स्थल बनाया।
मूनि मे कुछ भी बीभत्स जुगुप्सित प्रशोभन अनुचित बाहुबली को निराकरणता :
लगता है, ऐसा किसी भी दर्शक मनुष्य का अनुभव नही दिगम्बर जैन मूर्तियों को निरावरणता के रहस्य को है। कारण नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है। मनुष्य ने जो लोग नही समझते है, वे नग्नता के साथ अपनी प्रश्लील विकारो को प्रात्मसात करते करते अपने मन को इतना भावमायें भी जोड़ लेते हैं। शिवव्रतलाल वर्मन सदश अधिक विकृत कर लिया कि स्वभाव से सुन्दर नग्नता मण्य लोग भी चाहे तो दिगम्बर जैन मदिर मे जाकर उससे सहन नहीं होती। दोष नग्नता का नहीं अपने कृत्रिम 'छवि वीतरागी नग्न मुद्रा दृष्टि नासा पै घरै' तुल्य प्रतिमा जीवन का है। बीमार मनुष्य के मार्ग फल पौष्टिक मेवे के दर्शन करके भूल सुधार सकते है। हिन्दी वाङ्मय के या सात्विक पाहार भी स्वतन्त्रता पूर्वक नही रखा जा सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के शब्दो में सूर्य सत्य सकता। दोष खाद्य पदार्थ का नही, बीमार को बीमारी तो यह है कि मनुष्य जब प्राता है तब वस्त्र साथ नही का है। यदि हम नग्नता को छिपाते हैं तो नग्नता के दोष लाता है और जब जाता है तब भी वस्त्र साथ नही ले के कारण नही बल्कि अपने मानसिक रोग के कारण । जाता है। वस्त्रों का उपयोग जग्म से मरण के मध्य नग्नता छिपाने मे नग्नता की सुरक्षा नही लज्जा हो है। सामाजिक जीवन के लिए ही है। निर्विकार होने से साधुः जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त पवित्र हो जन निर्वस्त्र भी रह सकते हैं इसलिए दिगम्बर साधुप्रो जाता है वैसे ही पुण्यात्मानों-वीतरागो के सम्मुख भी सदश परम हंस और मादर जात फकीर भी होते रहे है। मनुष्य शान्त गम्भीर हो जाता है। जहाँ भव्यता और
भगवान बाहुबली ने निराबरण होकर, वस्त्राभूषण दिव्यता है वहाँ मनुष्य विनम्र होकर शुद्ध हो जाता है। त्यागी होकर पुनीत साधना को यो पोर जब बाहर सदश मूर्तिकार चाहते तो माधवी लता की एक शाखा को लिंग भीतर से भी निरावरण राग द्वेष रहित हुए तब ही उन्हे के ऊपर से कमर तक ले जाते पौर नग्नता को ढकना केवल ज्ञान की महामणि मिली और मुक्ति श्री भी। उनकी प्रसम्भव नहीं होता पर तब तो बाहुबलो भी स्वय अपने प्रतिमा भी एक सहस्राब्दी से निरावरण ध्यानस्थ वीतराग जीवन-दर्शन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते । जब मुद्रा में खड़ी है और पुरुषो को ही नही बल्कि पशु-पक्षियों निरावरणता ही उन्हें पवित्र करती है तब दूसरा भावरण को भी दिव्य शान्ति का सन्देश दे रही है। बाहुबली की उनके लिए किस काम का है ? प्रतिमा की निरावरणता से प्रभावित होकर अब तो जेनेतर निष्कर्ष यह निकला कि निर्विकार श्रमण की नग्नता विद्वान भी दिगम्बरता के प्रति द्वेष भाव को छोड़ कर निन्दा योग्य नहीं है बल्कि विकारग्रस्त परम प्रीति को प्राप्त होने लगें है।
प्रश्लीलता मूलक नग्नता हो प्रतीव निम्वनीय है, संशोधन