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महाकवि पुष्पाताबाहुबलि-मास्यान माणु ण छंडह छंद भयरम् ।
रहा है। कामरत जोड़ों के पसीने की बूंदें, उमसे पालोकित बवणचितइ चिता पोरिसु॥
होकर इस तरह चमक उठती है जैसे सौप के मणि हों। हे देव बाहबली अत्यन्त विषम राजा है, वह स्नेह का इसके बाद कवि सामतों की रतिक्रीड़ा का वर्णन करता है। सधान नहीं करता, होरी पर तीर का संधान करता है, वह सर्योदय होने पर जैसे-जैसे सूर्य बिम्ब ऊपर उठता है, कार्य नहीं साधता, अपना परिकर साधता है, वह संधि उसकी लालिमा (उषाराग) कम होती जाती है इस प्रकार नहीं चाहता, युद्ध चाहता है वह तुम्हें नही देखता, अपना वह समस्त राग चेतना का त्याग करने वाले परहंत की बाहुबल देखता है। वह तुम्हारी प्राज्ञा नहीं मानता अपने तरह परम उन्नति को प्राप्त होता है। छल का पालन करता है। वह मान नहीं छोडता, भयरस
'राउ मयंतु विगुणसंजत्तर । छोड़ता है!
पाहतुब रवि उठण पत्तउ ॥ दूत के इस कथन के साथ सूरज बता है और कवि रागचेतना की दो ही प्रवृत्तियां हैं या तो वह दिन में डूबती किरणो की रक्ताभा, विदूरी क्षितिज, माकाश- सूर्य की तरह विश्व को भाकात करेगी, या रात को कामिनी रजनी और सूर्य को लेकर, अपनी पार कल्पना चांदनी में प्रात्मरति मे बी रहेगी प्रकृति के दृश्य शक्ति से प्रकृति के बिम्ब खड़े करता है जिनमे पाकाश की
बदलते हैं, विश्व का घटना चक्र घूमता है, जीवन चेतना लक्ष्मी सूर्य के प में अपना शिरोमणि मस्ताचल को राग-विराग की धरी पर घूमती है। निवेदित कर रही है कि लो जब भाग्येशा ही नही रहा, तो माज फिर सबेरा है, प्ररहत की तरह सूर्य रक्ताभा तो उसके प्रतीक का क्या करूगी, निशा वधू ने मानो छोडकर सिर के ऊपर है। परन्तु बाहुबली मनुष्य के द्वारा दिवस के सामने शिखाम्रो से संतप्त, पत्यंत प्रारक्त दीप मनुष्य के अधिकारों को इस्पे जाने की प्रवृत्ति के खिलाफ प्रज्ज्वलित कर दिया कि जिससे वह प्रवेश न कर सके। है, भले ही हड़पने वाला उसका भाई हो। वह लड़ने का मानो सामने भाई हुई उत्तर दिशा रूपी वधू का चन्द्रमुख निश्चय करते हैं, दोनों भाइयों को सेनाएं युद्ध के मैदान में खोलकर जल रूपी लक्ष्मीने सिंदूर का पिटारा दिया हो। तैयार है। होने वाले नरसहार को टालने के लिए बढे धीरे-धीरे संध्याराग फैलता है पहाइ नदिया और पाटिया मंत्री तयुद्ध द्वारा हारजीत का फैसला करने का अनुरोध उसमे डब जाती हैं, लगता है सब कुछ लाक्षारस में हुब करते हैं। लेकिन जब चक्रवर्ती सम्राट् देखता है कि तीनगया हो। सध्यराग को कामदेव की प्राग समझता हुमा तीन युद्धों में पराजित होकर उसके सम्राट बनने का कवि कहता है कि सहनशीलता को समाप्त करने वाला मह धूल में मिल चुका है, विश्व को जीतने वाला वह अपने तयस्वियों भोर युवतियों को अब्ध करने वाला कामदेव पर ही में हार गया, तो उसे लगा उसकी शक्ति, वह स्वयं चंकि मानव मन में नहीं समा सका, इसलिए दशों दिशामों नहीं, उसका चक्र है, वह उसे बाहुबली पर चलाता है? मे दौड़ रहा है, अब उस संध्याराग की ज्वाला को अंधकार वह वार भी खाली जाता है। बड़े भाई की करतूत-पौर रूपी जल की लहरें शांत कर रही हैं, जिस संध्याराग को हारे की मुद्रा से बाहुबली प्रात्मग्लानि से अभिभूत है। केशर समझा जा रहा था उसे प्रकार के सिंह ने उखाड़ क्या गिरोह का मुखिया बनकर जनसेवा मोर जनकल्याण फैका जिसे संध्याराग रूप वृक्ष समझा जा रहा था, नसे की डींग हाकने वाले राजनेतामो का यही परित है? अंधकार के गजराज ने उखाड़ कर फेंक दिया ॥२४/१६ सत्ता की तामझाम मे प्रादमी इतना गिर जाता है ? वह
संध्याराग के विजेता प्रषकार को हरा कर चन्द्रमा ने पाश्म-विश्लेषण करते हुए कहते हैं-हाय मैं ही नीच कि संसार पर अपना भाधिपत्य जमा लिया। उसका प्रकाश जो मैंने अपने गोत्र के स्वामी चक्रवर्ती सम्राट को नीचा गोखों में घुसता है, स्तन तल पर प्रादोलित होता है, वह विक्षाया ? मेरे बाहुबम के द्वारा यह क्या किया गया, जो वधु के हार के समान दिखाई देता है। रंध्रों के पाकार मसुधीजनो के प्रति अन्याय करने वाला हमारण्या की का होकर, मार्जारों के लिए दूध की पाशंका उत्पन्न कर तरह इस धरती (सत्ता) का उपभोग किसने नहीं किया ?