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________________ 'सुइघरि पन्नाय वित्त । बहकर अंबर सिब संविधा। परपुरिसाणराइ सरचितुव एक णाई मह हासउ दिज्जह ॥ परदासत्तबम्मि सबसित्तु . जो बलवंतु बोहतो रामः । मायाणेहणि बंषणि मित्र जिम्बल पुणु किम्माणिप्राणउ ॥ प्राणिपाविड चित्त . हिप्पा मगह भगेण जि पामिसु । पणय-विलीणा विष्णउ भतुव हिप्पा मणुयह मणएण जि वसु ।। हरसतुरिया गवउ कसत्तु।। रस्साकसह जूह एप्पिण। चक पयोध्या में वैसे ही प्रवेश नहीं करता, जैसे, एषकह फेरी प्राण लएप्पिण ॥ पवित्र घर मे अन्याय से कमाया हुमा धन, दूसरे पुरुषों के ते णि वसंति लिलोइ गविट्ठउ । अनुराग में सती का चित्त, जैसे दूसरों की दासता में सीह हु केरउ बंदु ण विदुर । स्वाधीन वृत्ति (चित्त), जैसे मित्र छल-कपट पूर्ण स्नेह माणभंगि वर मरण ण जीवित। बग्घन में, जैसे पापी का चित्त पात्रदान में, जैसे दिया एहय दूप सुट्ठ मई भाविउ ॥ हुमा भात (भोजन) पचि से पीड़ित व्यक्ति में, जैसे नई पावउ भाउ घाउ तह बंसमि। दुलहिन रतिरस से चंचल व्यक्ति के मन में प्रवेश नहीं संझाराज व अणि विवंसमि ॥ नहीं करती। तर्क देकर कामदेव बाहुबली कहते हैं-चाहे वे यहा पैदा हुए हों या पौर कही, जो दूसरो के धन का अपहरण ठहरा हुमा बक ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोपाग्नि का ज्वला मंडल हो। जैसे नगर की सक्ष्मी के कान का करने वाले और झगड़ा करने वाले हैं, वे इस दुनिया मे ' राजा होते हैं। बूढा सियार लोककल्याण की बात करता कुंडल हो, जैसे भरत के प्रताप से कायर हुमा सूर्य बिब हो। है यह देखकर मुझे हंसी भाती है। निर्बल को और जं कोबाणल जामा मंड। निष्प्राण बनाया जाता है, पशु के द्वारा पशु के मांस का जं पुरलच्छिह परिहिट कुंडल ॥ अपहरण किया जाता है, और मनुष्य के द्वारा मनुष्य के भरहपथावें फायरिखापर। बन का । रक्षा की माकांक्षा के नाम पर गिरोह बना कर, माणुवित्र नं ॥२/१६॥ और किसी एक की प्राज्ञा मान कर ये लोग निवास करते भरत के दूत, भाइयों के सामने बड़े भाई को अधीनता ने तीनों लोकों की छानबीन कर ली है। सिंहों का मान लेने का प्रस्ताव रखते है, भरत के सगे निम्या भाई गिरोठ कहीं दिखाई नहीं दिया। मान के भंग होने पर, गुलामी जिन्दगी जीने के बजाय सन्यास प्रहण कर लेते हैं। मर जाना पच्छा, जीना अच्छा नहीं, हे दूत, मुझे यह परन्तु सुनंदा का बेटा बाहुबली म तो प्रस्ताव स्वीकार अच्छा लगता है। भाई माए मैं उसे घात दूंगा, मोर करता है और न अषीनता मानता है, वह भाई की प्रभु संध्या को लाखिमा की तरह एक क्षण मे ध्वस्त कर दूंगा। सत्ता को चुनौती देने से नहीं चूकता। उसका मुस्ख तर्क है बाहुबली के उत्तर को दूत भरत के सम्मुख इन शब्दो कि दुखों का नाश करने वाले महीश्वर (ऋषभ तीकर) में खाता है: मे नगर मोर देश से सोभित जो प्रभुसत्ता मझे दी है वह 'विसमुदेव बाहुबलि परेसा । मेरा लिखित शासन है-उसका प्रमहरण कौन कर सकता बड़े संघसंबड पनि स है? अपने स्वार्थ और सत्ता की घिनौनी प्रवृत्तिको राज कम्नुमबह बंद परिवा। नीति का रूप देने वाले भाई के दूत से वह कहते हैं? संकि इन संग ।। सामणि सहेलना मपरकेउमा एत्यहि मिला। बेपरवविणहारियो कलह कारिलो ते बमिराया।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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