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________________ महाकवि पुष्पदंत का बाहुबलि-पाख्यान डा. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर ९८१ ई० मे चामुण्डराय को प्रेरणा से श्रवणवेलगोला उसकी सेना के मार्च से बढ़ेगा पहाड़ समतल हो गए, में बाहबलो की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठापना हुई। इससे कौन जल कोचर नहीं हमा? तेरह वर्ष पूर्व ६६८ में मंत्री भरत के अनुरोष पर महा होह गिरिवल बिबिसें समरल। कवि पुष्पदत अपभ्रंश में महापुराण की रचना कर चुके किणकिण किर कमियउबलु॥ थे। जो बहुत बड़ा काव्यात्मक प्रयोग था। इससे पहले कि किंग संघरियड वर्ष। संस्कृत को ही पुराण काव्य लिखने के लिए उपयुक्त समझा किण किम ली पायर तनु।। आता था। पुष्पदंत ने अकेले सठशलाका पुरुषों के चरितों को अपभ्रश जैसी लोकभाषा में कलात्मक अभि भरत के स्वागत में चहल-पहल का क्या पूचना । व्यक्ति देकर सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति पर किसी कुमकुम का छिड़काव कपूर की रंगोली मोरों से गंजतेरा भाषा का अधिकार नहीं माना जा सकता। महापुराण के पुष्यों की वर्षा, कल्पवृक्षों के बंदनवार, घर-घर गाए बाते 'नाभेयचरित'। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का वर्णन है, हए, भरत के गीत । कुछ स्त्रियों के द्वारा दूब, वही सरसों बाहवलि पाख्यान उसी का एक प्रश है, जो तीन संषियों। पौर चन्दन ग्रहण किया जा रहा है जबकि अन्यों वारा में सीमित होने पर भी कवि की सृजनशीलता का श्रेष्ठ पंण । सुरकन्या मंगल गान कर रही है:नमूना है, जो सामतवाद की पृष्ठभूमि पर लिखित है। 'कुंकुमेण छाल दिया। सामंतवाद, मूल्य विहीन राजनीति का सबसे घिनौना रूप कम्पूरे रंगावलि किया। पा। पुष्पदंत का खुद, यह भोगा हमा सस्य था। एक पोर धिप्पा कुसुमकरं समस्यषु। महम्मद बिनकासिम के प्राकमण के साथ सिंष पर विदेशी बमा सुरतरु-पल्लव बोर।। पाक्रमणों को इसकी चिन्ता नहीं थी। वे प्रापसी चढाइयों परिपरि गाइण्ड विणवण । में एक-दूसरे को नीचा दिखाने पोर लटपाट में लगे थे। बोब बहिय-सिखात्यय ॥ महापुराण, मोर खासकर बाहुबली का पाख्यान लिखते इंम्पनु कलसु परिवबह उहि ।। समय कवि के मन में यह चेतना थी। उम्बोसित मंगल सुरकग्नहि। बाहबलो का पाख्यान-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भरताविप समस्त परित से संबद्ध है, क्योंकि वे उनकी दूसरी पत्नी सनंदा परती जीत कर, और साठ हजार वर्षों तक दिग्विजय की के इकलौते बेटे थे। पहली पत्नी यथोवती से सो पत्र और क्रीड़ा कर पयोध्या में प्रवेश कर रहा है। उसकी चोदा पुत्री थी-जाह्मी। बाहुबली की बहन की संदरी। बाइबलि जरूर पूरी हो चुकी होगी, परन्तु उसके पारलकी कीड़ा भास्यान तब प्रारंभ होता है जब भरत दिग्विजय से लोट अभी पूरी नहीं हुई। वह अयोध्या की सीमा पर माता कर अपने भाइयों के पास यह संदेश भेजता है कि क्योंकि देवी विधान के अनुसार पक्रवर्ती सम्राट् बनने उसकी अधीनता मान लें। पश्वी सम्राट् बन कर भरत के लिए अपने ही घर के भाइयों को बीतना बाकी है। अपनीमूह नपरी सौट रहा है। कैलाश पर्वत पर अषम स्थिर होने पर कवि की कल्पना सकियो तीर्थकर की वंदनाभक्ति कर, अब भरत चलता है, तो उठती है:
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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