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________________ बनेकात कुलकर? राज्य पर गाज गिरे-यह उक्ति बिल्कुल ठीक है, राज्य चूकते कामदेव होकर अब वह प्रकाम साधना में लीन हैं। के लिए पिता को मार दिया जाता है और भाइयों को भी वर्ष भर ध्यान योग में खड़े हुए उनकी देह लतामों में घिर जहर दे दिया जाता है, जब भट मामंत और मंत्री के वर्ग हो जाती है, हिरन उससे सींग घिसते हैं, लेकिन वह प्रविचल विभाजन पर विचार करता हूं तो वह सब पराया प्रतीत हैं। लेकिन तपस्या का बाहरी रूप अंतरग को शुद्ध करने में असमर्थ है। उनका मन उधेड़-बुन में लगा है। एक होता है। दिन भरत सपत्नीक उनके दर्शन करके कहता है: "महिपुण्णालि व केण ग भुत्ती। तुम्हारे समान संसार मे दूसरा भद्रजन नही है, तुमने रमह पडउ बज्ज सम सुत्ती॥ कामदेव होकर मकाम साधना प्रारम्भ की है, तुमने राग रज्जह कारणि पिउ मारिज्जह । मे प्रगग को मल रहित कर दिया, तुमने बाहुबल से मुझे बंधव ई मि विसु संचारिजा। भडसामंत मंतकियभायउ । निस्तेज (मलिन) किया, फिर तुम्ही ने करुणा से मेरी रक्षा की फिर अपने हाथ से मुझे घरती दी। इस दुनिया चितिज्जंउ सम्वु परायउ ॥" १/१८ मे वास्तव मे परमेश्वर तुम ही हो (मैं नही)। बाहबली पारमचिन्तन के क्षणों में सोच रहे है..- यदि राज्य में सूख होता, तो पितृदेव ऋषभ उसका परित्याग भाई और सम्राट भरत के इन शब्दों से बाहबली का क्यों करते ? कहां है सुखों की निधि वह भोग-भूमि, कहां अह गलता है, और अन्त में उन्हे कवल प्राप्त होता है। हैं संपत्ति पंदा करने वाले कल्पवृक्ष ? कहा गए वे देवों और मनुष्यों की भीड़ में देवेन्द्र उनकी स्तुति मे कहता है: राजचक्र को तुमने तिनका समझा, और कमकालरूपी महानाग से कोई नहीं बच सकता है केवल एक चक्र को ध्यान की माग ने झोंक दिया। सुजनता है कि उसके सामने टिकी रहती है। वह बड़े भाई को देवचक्र (मडल) तुम्हारे पागे-मागे दौडता है, चक्रक्षमायाचना पूर्वक राज देकर तप ग्रहण करना चाहता, परन्तु वर्ती (भरत) को अपना चक्र अच्छा नही लगता, हे मुनि भरत पराभव से दूषित गज्य नहीं चाहता। वह कहता प्रापके साक्षात्कार से राग नही बढ़ता, तुम्हें छोड़ कर और है-हे भाई तुमने रनिवास के सामने मुझे अपने हाथों से कौन नरक में निकाल सकता है। पृथ्वीश्वर ने काम की उठाया और तह करके धरती पर पटक दिया। तब क्या प्रासक्ति से दीक्षा लेकर काम को जीत लिया। इस चकरन ने मेरी रक्षा को? तुमने अपने अमाभाव से अन्त मे कवि-ऋषभ तीर्थकर के समवसरण में बैठे भमा (धरती को भी जीत लिया है। (तुम्हारे क्षमा मांगने हुए बाहुबलि से कहता है-हे बाहुबली मुझे बोध पोर से क्या?) तुम्हारे समान तेजस्वी सूर्य भी नहीं है, तुम्हारे ज्ञान दीजिए ? समान गभीर समुद्र भी नही है, तुमने अपयश के कलंक को महाकवि के महापुराण (दो रचनाएं और है, धो डाला है, तुमने नाभि राजा के कुल को उज्ज्वल किया णायकुमार चरिउ जसहरचरिउ) जैन चरणानुयोग का है, इस दुनिया मे तुम अकेले पुरुषरत्न हो, कि जिसने मेरे ही नहीं समूचे भारतीय मृजनात्मक साहित्य की प्रमूल्य बल को विकल कर दिया? दुनिया मे तुम्हें छोड़ कर बरोबर. धरोहर है, एक मोर उसमे लोकभाषा और शास्त्रीय भाषा मोर उसमें लोकभाषामा किसके यश का डंका बजता है? तुम्हारे समान त्रिभुवन का सरी पोरन । मे कौन भला है ? दूसरा कोन साक्षात कामदेव है ? प्रयोग है, काम चेतना भोर राग चेतना का द्वंद्व है, उसके जिनवर के चरणों की सेवा करने वाला और नपशासन सजन में अपभ्रंश की प्राणवत्ता और अभिव्यक्ति-शक्ति की नीति की रक्षा करने वाला दूसरा कोन है ? शशि सूर्य मुखरित हुई है, कवि पौराणिक व्यक्तित्वों के माध्यम से से.मंदर मदराचल से और इन्द्र इन्द्र से तुलनीय है अपने युग यथार्थ मूल्यों की अनुभूतिमय झांकी प्रस्तुत करता परन्तु सुनंदा देवी के पुत्र एक तुम हो कि तुम्हारे समान है, भाषिक अध्ययन की दृष्टि से उसका महत्व सृजन से दूसरा नहीं ? हे भाई, लो यह राज्य तुम सम्हालो, मैं अब भी अधिक है। कुल मिलाकर पुष्पदत का बाहुबलिदीक्षा ग्रहण करूंगा।" माख्यान भारत की पुराणमूलक प्राध्यात्मिक चेतना की कहते हैं सज्जन की करुणा से सज्जन ही द्रवित होता पृष्ठ भूमि पर दसवीं सदी के भारतीय समाज के सामंतहै, बाहबीब भाई की बात से अभिभूत हो उठते हैं, बादी मूल्यों के विश्लेषण की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। लाख-लाख अनुरोध करने पर, वह सन्यास लेने से नहीं शाति निवास, ११४ उषानगर, इंदौर-४५२००२
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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