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________________ १०, ३३, कि.२ अनेकान्त उसी मब से मोक्ष को प्राप्त करता है : स्वरूप मे स्थिरता प्रस्तुत करते हुए पागम के व्यवहार पक्ष को भी प्रकट यथाश्यात चारित्र से ही होती है। करते चलते हैं। इस प्रकार अध्यात्म की देशना में निश्चय रत्नत्रय कुन्दकुन्द के बाद हम इस अध्यात्मदेशना को पूज्यपाद अथवा भमेदरस्नत्रय ही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है। के समाधितन्त्र, इष्टोपदेश में पुष्कलता से पाते हैं। योगीन्द्र व्यवहार रत्नत्रय अथवा भेदरूप रत्नत्रय, निश्चय का देव का परमात्माप्रकाश और योगसार भी इस विषय के साधक होने के कारण उपचार से मोक्षमार्ग माना जाता है। महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। प्रकीर्णक स्तम्भ के रूप में प्राचार्य __ महावीर स्वामी की प्रध्यात्मदेशना को सर्वप्रथम पद्मनन्दी तथा पण्डितप्रवर माशाधर जी ने भी इस धारा कन्दकन्द स्वामी ने अपने ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान दिया को समुचित प्रश्रय दिया है। प्रमतचन्द्रसूरि ने कुन्दकुन्द है। उनका समयसार तो अध्यात्म का ग्रन्थ माना ही स्वामी के अध्यात्म रूप उपवन की सुरभि से ससार को जाता है, पर प्रवचनसार, पचास्तिकाय, नियमसार तथा सुरभित किया है यशस्तिलकचम्पू तथा नीति-वाक्यामृत प्रष्ट पाहर मादि ग्रन्थों में भी यथाप्रसग अध्यात्म का के कर्ता सोमदेवाचार्य की प्रध्यात्मामततरंगिणी भी इस अच्छा समावेश हुमा है । कुन्कुन्द स्वामी की विशेषता यह विषय का एक उत्तम ग्रन्थ है। रही है कि वे अध्यात्म के निश्चयनर सम्बन्धी पक्ष को १. जाणदि पस्सदि सव्वं वबहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण पप्पाणं ।१५६। नियमसार, कुन्दकुन्द भागवत में भगवान ऋषभदेव भारतीय रहस्यवाद के विकास की रूपरेखा देते हुए प्रार. वणित सुख की सभी अवस्थामों पर कैसे उन्होंने अंततोडी. रानाडे ने भागवत पुराण, (स्कंद ५ श्लोक ५-६) गत्वा संकल्प किया शरीर पर विजय पाने का ; जब से एक अन्य प्रकार के योगी का मनोरजन प्रसग उदघत उन्होंने भौतिक शरीर मे अपने सूक्ष्म शरीर को विलीन किया है जिसकी परम विहता हो उसकी प्रास्मानुभूति करने का निश्चय किया उस समय वे कर्नाटक तथा अन्य का स्पष्टतम प्रमाण था। उधरण यह है : 'हम पढ़ते प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे ; वहाँ दिगम्बर, एकाकी है कि अपने पुत्र भरत को पृथ्वी का राज सौपकर किस पोर उन्मत्तवत् भ्रमण करते समय वे बांस के झरमट से प्रकार उन्होंने संसार से निलिप्त भोर एकांत जीवन बिताने उत्पन्न भीषण दावानल की लपटों मे जा फसे थे मौर का निश्चय किया ; कैसे उन्होंने एक अघ, बहरे या गूगे तब किस प्रकार उन्होंने अपने शरीर का अंतिम समर्पण मनष्य का जीवन बिताना प्रारम्भ किया; किस प्रकार व प्रग्निदेव को कर दिया था। यह विवरण वस्तुतः जैन नगरों और प्रामो में, खानो और उद्यानो मे, वनों और पर्वतो मे समान मनोभाव से रहने लगे; किस प्रकार उन्होने परम्परा के अनुरूप है जिसमें उनके प्रारंभिक जीवन के उन लोगों से घोर अपमानित होकर भी मन मे विकार न अन्य विवरण भी विद्यमान हैं। कहा गया है कि उनकी पाने दिया जिन्होंने उन पर पत्थर और गोबर फेंका या दो हस्नियां थी-सुमगला मोर सुनन्दा; पहली ने भरत उन पर मत्र-स्याग किया या उन्हे सभी प्रकार से तिरस्कार मौर ब्राह्मी को जन्म दिया और दूसरी ने बाहुबली पोर का पात्र बनाया, यह सब होते हुए भी किस प्रकार उनका सन्दरी को। सुनन्दा ने और पढ़ानवें पुत्रों को जन्म दीप्त मुखमण्डल पोर पुष्ट सुगठित शरीर, उनके सबल दिया। इस परपरा से हमें यह भी ज्ञात होता है कि हस्त और मुस्कराते होठ राजकीय पन्त पुर की महिलापों ऋषभदेव बचपन मे जब एक बार पिता की गोद में बैठे को प्राकृष्ट करते थे ; वे अपने शरीर से किस सीमा तक सभी शव में दक्ष (गन्ना लि हो पाया। गाने को निर्मोह ये कि थे उसी स्थान पर मलत्याग कर देते जहाँ देखते ही ऋषमदेव ने उसे लेने के लिए अपना मांगलिक वे भोजन करते, तथापि, उनका मन कितना सुगधित था लक्षणों से युक्त हाथ फैला दिया, बालक की इनु के प्रति कि उसके दस मील पासपास का क्षेत्र उससे सुवासित हो पभिरुचि देखकर इन्द्र ने उस परिवार का नाम इक्ष्वाकु उठता; कितना पटल प्रषिकार था उनका उपनिषदों मे रख दिया।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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