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प्राकृत साहित्य में समता का स्वर
हा प्रेमसुमन जैन प्राकृत साहित्य कई दृष्टियों से सामाजिक और प्राकृतों के शब्द ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त नहीं हुए हैं माध्यात्मिक क्षेत्र से समता का पोषक है। इस साहित्य प्रपितु लोक में प्रचलित उन देशज शब्दों की भी प्राकृत की प्राधार शिला ही समता है क्योंकि भाषागत, पात्रगत साहित्य मे भरमार है जो पाज एक शब-सम्पदा के रूप एवं चिन्तन के धरातल पर समत्वबोध के अनेक उदाहरण में विद्वानों का ध्यान पाकर्षित करते हैं। दक्षिण भारत प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं।
की भाषामों में कन्नड़ तमिल प्रादि के अनेक शम्द प्राकृत बन-भाषामों का सम्मान:
साहित्य में प्रयुक्त हुए है । संस्कृत के कई शब्दो का प्राकृतीभारतीय साहित्य के इतिहास में प्रारम्भ से ही सस्कृत करण कर उन्हें अपनाया गया है। प्रतःप्राकत साहित्य में भाषा को प्राधिक महत्व मिलता रहा है । सस्कृत की शब्दो मे यह विषमता स्वीकार नही की गयी है कि कुछ प्रधानता के कारण जन सामान्य की भाषामों को प्रारम्भ विशिष्ट शब्द उच्च श्रेणी के है कुछ निम्न श्रेणी के कुछ ही मे वह स्थान नहीं मिल पाया जिसकी वे अधिकारिणी थी। शब्द परमार्थ का ज्ञान, करा सकते हैं कुछ नहीं। इत्यादि। प्रतः साहित्य-सृजन के क्षेत्र मे भाषागत विषमता ने कई शिष्ट और लोक का समम्पय:विषमतामों को जन्म दिया है। प्रबद्ध और लोक-मानस प्राकृत साहित्य कथावस्तु भोर पात्र-चित्रण की दृष्टि के बीच एक अन्तराल बनता जा रहा । प्राकृत सहित्य के से भी समता का पोषक है । इस साहित्य की विषय वस्तु मनीषियों ने प्राकृत भाषा को साहित्य मोर चिन्तन के में जितनी विविधता है, उतनी पोर कहीं उपलब्ध नहीं घगतल पर सस्कृत के समान प्रतिष्ठा प्रदान की। इससे है। सस्कृत मे वैदिक साहित्य की विषय वस्तु का एक भाषागत समानता का सूत्रपात्र हुमा और संस्कृत तथा निश्चित स्वरूप है । लौकिक सस्कृत साहित्य के ग्रन्थो मे प्राकृत, समान्तर रूप से भारतीय साहित्य और आध्यात्म आभिजात्य वर्ग के प्रतिनिधित्व का ही प्राधान्य है । महाकी संवाहक बनी।
भारत इसका अपवाद है, जिसमें लोक पोर शिष्ट दोनो प्राकृत साहित्य का क्षेत्र विस्तृत है। पालि, अर्घ- वर्गों के जीवन की झांकियां है किन्तु भागे चलकर संस्कृत मागधी, अपभ्रंश आदि विभिन्न विकास की दशामों से मे ऐसी रचनायें नहीं लिखी गयी। राजकीय जीवन पोर गुजरते हुए प्राकृत साहित्य पुष्ट हुमा है। प्राकृत भाषा के सुख समृद्धि के वर्णक ही इस साहित्य को भरते रहे, साहित्य में देश की उन सभी जन बोलियों का प्रतिनिधित्व कुछ अपवादों को छोड़कर। हमा है, जो अपने-अपने समय में प्रभाववाली थीं। प्रतः प्राकृत साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास विषमता से समता प्रदेशगत एवं जातिगत सीमामों को तोड़कर प्राकृत की पोर प्रवाहित हमा है। उसमे राजापों को कपाएं है साहित्य ने पूर्व से मागषी उत्तर से शौरसेनी पश्चिम से तो लकड़हारों और छोटे-छोटे कर्म शिल्पियो की भी। बुद्धिपैशाची दक्षिण से महाराष्ट्री प्रादि प्राकृतों को सहर्ष मानों के ज्ञान की महिमा का प्रदर्शन है तो मोले पज्ञानी स्वीकार किया है.किसी साहित्य में भाषा की यह विविधता पात्रों की सरल भंगिमाएं भी हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय जाति उसके समत्वबोष को ही द्योतक कही जायेगी।
के पात्र कथानों के नायक है तो शुद्ध और वैश्य जाति के बामगत-समता:
__ साहसी युवकों की गौरवगापा भी इस साहित्य में वर्णित माषागत ही नहीं, अपितु शब्दगत समानता को भी है। ऐसा समन्वय प्राकृत के किसी भी अन्य में देखा जा प्राकृत साहित्य में पर्याप्त स्थान मिला है। केवल विभिन्न सकता है। 'कुवलयमालाकहा, और समराइन्धकहा, इस