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________________ १२, बर्ष ३३, कि०१ अनेकान्त प्रकार की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। नारी और पुरुष पात्रों सामायमा तस्सो प्रयाण भएकसए। का विकास भी किसी विषमता से माकान्त नहीं है इस -१-२-२-१७॥ साहित्य में मनेक ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमें पुत्र पतः अभय से समंता का सूत्र प्राकृत प्रन्यों ने हमें पौर पूत्रियों के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की गयी है। दिया है वस्तुतः जब तक हम अपने को भयमुक्त नहीं बेटी और बह को समानता का दर्जा प्राप्त रहा है । प्रतः करेंगे तब तक दूसरों को समानता का दर्जा नहीं दे सकते। सामाजिक पक्ष के जितने भी दृश्य प्राकृत साहित्य मे प्रतः पास्मा के स्वरूप को समझकर राग द्वेष से ऊपर उपस्थित किए हैं। उनमें निरन्तर यह भादशं सामने उठना ही अभय मे जीना है, समता की स्वीकृति है। रखा गया है कि समाज में समता । विषमता की जननी व्यक्ति का पहंकर भी है। पदापों प्राणीमात्रकी समता: की प्रज्ञानता से पहंकार का जन्म होता है। हम मान में माध्यात्मिक क्षेत्र में समता के विकास के लिए प्राकृत प्रसन्न और पपमान में क्रोषित होने लगते हैं और हमारा साहित्य का अपूर्ण योगदान है। प्राणी मात्र को समता ससार दो खेमों में बंट जाता है। प्रिय और प्रप्रिय की की दृष्टि से देखने के लिए समस्त भास्मानों के स्वरूप प्रोलियन जा को क माना गया है। देहगत विषमता कोई अर्थ नही करते हैं। 'दसर्वकालिक का सूत्र है कि जो बन्दना न करें रखती है यदि जीवगत समानता की दिशा मे चिन्तन उस पर कोप मत करो और वन्दना करने पर उत्कर्ष करने लग जाए । सब जीव समान है इस महत्वपूर्ण तथ्य (धमड) में मत पामोको स्पष्ट करने के लिए प्राकृत साहित्य मे पनेक उदाहरण जैन बनेन से कुप्पे विमो न समुफ से। दिए गये हैं। परिमाण की दृष्टि से सब जीव समान हैं। -५-२.३०। मान की शक्ति सब जीवो मे समान है जिसे जीव अपने- तो तुम सम धारण कर सकते हो। ने प्रयत्नो से विकसित करता है । शारीरिक विषमता प्रप्रतिबद्धता : समता:पदगलो की बनावट के कारण हैं। जीव पोद्गलिक है समता के विकास में एक बाधा यह बहुत भाती है प्रतः सब जीव समान है। देह पोर जीव में भेद-दर्शन कि व्यक्ति स्वयं को दूसरों का प्रिय अथवा पप्रिय करने की दष्टि को विकसित कर इस साहित्य ने बंषम्य की वाला समझने बगता है। जिसे वह ममत्व की दृष्टि से समस्या को गहरायी से समाधित किया है । परमात्मप्रकाश देखता है उसे सुरक्षा प्रदान करने का प्रयत्न करता है में कहा गया है कि जो व्यक्ति देह भेद के माधार पर मोर जिसके प्रति उसे देष पैदा हो गया है, उसका वह जीवो मे भेद करता है, वह दर्शन ज्ञान, चारित्र को जीव मनिस्ट करना चाहता है । प्राकृत साहित्य में इस दृष्टि से का लक्षण नहीं मानता । यथा बहुत सतर्क रहने को कहा गया है। किसी भी स्थिति या बेहिविभेदय जो कुणा जीवह भेट विचित् । व्यक्ति के प्रति प्रतिबद्धता समता का हनन करती है पता सो विलपमण मणई तहसण-जाण-चरित ॥१.२॥ 'भगवती पाराधना' में कहा गया है कि सब वस्तुमो से अभय से समस्य: जो मप्रतिबद्ध है (ममत्वहीन) वही सब जगह समता को विषमता की जननो मूल रूप से भय है। अपने शरीर प्राप्त करता हैपरिवार धन पादि सबकी रक्षा के लिए ही व्यक्ति पौरों सम्बस्म अपरिबयो उवि सम्बत्य समभा। की अपेक्षा अपनी पधिक सुरक्षा का प्रबन्ध करता है और (म.पा. १६८१) धीरे-धीरे विषमता की खाई बढ़ती जाती है। इस तथ्य समता सर्वोपरि:को ध्यान में रखकर ही 'सूत्रकृताग' में कहा गया है कि समता की साधना को प्राकृत भाषा के मनीषियों ने समता उसी के होती है जो अपने को प्रत्येक भय से मलग ऊंचा स्थान प्रदान किया है। अभय की बात कहकर (शेष पृष्ठ १७ १९)
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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