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सम्राट्र मुहम्मद तुगलक और महान जैन शासन - प्रभावक श्री जिनप्रभ सूरि
जैन ग्रन्थों में जैन शासन की समय-समय पर महान् प्रभावना करने वाले माठ प्रकार के प्रभावक पुरुषों का उल्लेख मिलता है। ऐसे प्रभावक पुरुषों के सम्बन्ध में प्रभावक परित्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे गये हैं। घाठ प्रकार के प्रभावक पुरुष इस प्रकार माने गए है - प्रावचनिक धर्मकथी, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्यावान्, सिद्ध पौर कवि । इन प्रभावक पुरुषों ने घपने असरबारण प्रभाव से प्रापति के समय जैन शासन की रक्षा की, राजा-महाराजा एवं जनता को जैन धर्म को प्रतिबोध द्वारा शासन की उन्नति की एव शोभा बढाई । धार्यरक्षित प्रमयदेवसूरि को प्रावनिक, पादलिप्तसूरि को कवि, विद्याबली पोर सिद्धविजयदेवसूरि व जीवदेवसूरि को सिद्ध, मल्लवादी वद्धवादी औौर देवसूरि को वादी, बप्पभट्टिसूरि, मानतुंगसूरि को कवि, सिद्धर्षि को धर्मकथी महेन्द्रसूरि को नैमित्तिक प्राचार्य हेमचन्द्र को प्रावचनिक धर्मकथी और कवि प्रभावक, 'प्रभावक चरित्र' को मुनि कल्याण विजय जी की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे बतलाया गया है ।
खरतरगच्छ मे भी जिनेश्वरसूरि प्रभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तमूरि, मणिबारी- जिन चन्द्रसूरि, मौर जिनपतिसूरि ने विविध प्रकार से जिन शासन की प्रभावना की है। जिनपतिसूरि के पट्टषर जिनेश्वरसूरि के दो महान् पट्टषर हुए- जिनप्रबोधसूरि तो घोसवाल और जिनसिंहरि श्रीमाल संघ मे विशेष धर्म प्रचार करते रहे। इसलिए इन दो प्राचायों से खरतरगच्छ की दो शाखाएं अलग हो गई। जिनसिंहसूरि की शाखा का नाम खरतर लघु प्राचार्य प्रसिद्ध हो गया, जिनके शिव्य एवं पट्टधर जिनप्रसूरि बहुत बड़े शासन प्रभावक हो गए हैं, जिनके सम्बन्ध में भारतीय इतिहासकारो व साधारणतया लोगों - को बहुत ही कम जानकारी है। इसलिए यहाँ उनका
श्री प्रगरचन्द नाहटा, बीकानेर
प्रावश्यक परिचय दिया जा रहा है ।
वृद्धाचायं प्रबम्बावली के जिनप्रभसूरि प्रबन्ध में प्राकृत भाषा मे जिनप्रभसूरि का प्रच्छा विवरण दिया गया है, उनके अनुसार ये मोहिल बाड़ी- लाडनू राजस्थान के श्रीमाल ताम्बी गोत्रीय श्रावक महाघर के पुत्र रत्नपाल की धर्म पत्नी खेतलदेवी की कुक्षि से उत्पन्न हुए थे। इनका नाम सुभटपाल था । सात माठ वर्ष को बाल्यावस्था में ही पद्मावती देवी के विशेष संकेत द्वारा श्री जिनसिहरि ने उनके निवास स्थान मे जाकर सुभटपाल को दीक्षित किया सूरि जी ने अपनी धायु प्रत्पज्ञात कर सं० १३४१ कढवाणा नगर में इन्हे प्राचार्य पद देकर अपने पट्टपर स्थापित कर दिया। 'उपदेश सप्ततिका' में जिनप्रभसुरि सं० १३३२ मे हुए लिखा है, यह सम्भवतः जन्म समय होगा। थोड़े ही समय में जिनसिंह सूरि जी ने जो पद्मावती प्राराधना की थी वह उनके शिष्य - जिनप्रभसूरि जी को फलवती हो गई और आप व्याकरण, कोश, छंद, लक्षण, साहित्य, न्याय, षट्दर्शन, मंत्र-तंत्र और जैन दर्शन के महान् विद्वान् बन गए। धापके रचित विशाल और महत्वपूर्ण विविध विषयक साहित्य से यह भली-भांति स्पष्ट है। धन्य गच्छीय मोर खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के विद्वानों को मापने अध्ययन कराया एवं उनके ग्रथों का संशोधन किया ।
साधारण विद्वता के साथ-साथ पद्मावती देवी के सानिध्य द्वारा मापने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं जिनका वर्णन खरतरगच्छ पट्टावलियों से भी अधिक तपागच्छीय ग्रन्थों मे मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख योग्य है। स० १५०३ में सोमधर्म मे उपदेश-सप्ततिका नामक अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के पंचम उपदेश में जिनप्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई