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अनेकान्त
चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि कल्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखने वाले इस कलियुग में कई प्राचार्य जिन शासन रूपी घर में जिनसिंहसूरि-शिष्य' बतलाये गये हैं मतः जिनप्रभसूरि दीपक के समान हए । इस सम्बन्ध में म्लेच्छ पति को या उनके किसी गुरु-भ्राता ने इस कल्प की रचना की है। प्रतिबोष को देने वाले श्री जिनप्रभसूरि का उदाहरण इसमे स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि खानने लायक है। अन्त में निम्न श्लोक द्वारा उनकी जी ने सं० १२३३ के प्राषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस स्तुति की गई है
प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपतिस श्री जिनप्रभः सूरि रिताशेष तामसः। सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था। अन्तिम हिन्दू भद्रं करोत संघाय, शासनस्य प्रभावकः ।।१।। सम्राट पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्को के भय से सेठ
इसी प्रकार संवत् १५२१ में तपागच्छीय शुभशील रामदेव के सूचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल गणि में प्रबन्ध पचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया की विपुल बालू मे छिपा दिया गया था। स० १३११ के जिसके प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरि जी के चमत्कारिक दारुण दुमिक्ष में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर १६ प्रबन्ध देते हुए अन्त में लिखा है
यह प्रतिमा प्रगट हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर 'इति कियन्तो जिनप्रभसूरि प्रवदातसम्बन्धाः" विराजमान की। सं० १३८५ मे हासी के सिकदार ने
इस प्रम्य में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई श्रावको को बन्दी बनाया और इस महावीर बिम्ब को ज्ञातव्य प्रबन्ध हैं। उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०, दिल्ली लाकर तुगलकाबाद के शाही खजाने मे रख ३०६, ३१४ तथा अन्य भी कई प्रबन्ध मापके सम्बन्धित दिया ।
जनपद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे शित जिनप्रभसूरि उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन और राज सभा मे पडितों की गोष्ठी के द्वारा सम्राट को लिखित विस्तृत प्रबन्ध है। खरतरगच्छ वहद-गुरुवावली. प्रभावित कर इस प्रभु-प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के प्रत मे जो वताचार्य प्रबन्धावली तुगलक ने प्रख-रात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्ठी की मोर नामक प्राकृत की रचना प्रकाशित हुई है । उसमें जिनसिंह उन्हे वही रखा। प्रातःकाल संतुष्ट सुलतान ने १००० सूरि परि जिनप्रभसूरि के प्रबन्ध खरतरगच्छीय विद्वानों के गायें, बहुत सा द्रव्य, वस्त्र-कबल, चदन, कर्पूरादि सुगधित लिखे हुए है। एवं खरतरगच्छ की पावली प्रादि मे भी पदार्थ सूरिजी को भेंट किया। पर गुरुश्री ने कहा ये सब कुछ विवरण मिलता है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या साधुनों को लेना प्रकल्प्य है । सुलतान के विशेष अनुरोध कार्य विशेष का समकालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के से कुछ वस्त्र-कंबल उन्होने 'राजाभियोग' से स्वीकार कन्यानयनीप महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प किया और महम्मद तुगलक ने बड़े महोत्सव के साथ परिशेष में प्राप्त है। उसके अनुसार जिनप्रभसरि जी ने यह जिनप्रभसूरि मौर जिनदेवसूरि को हाधियों पर मारूढ़ कर मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा सम्मान प्राप्त किया था। पौषधशाला पहुंचाया। समय-समय पर सूरिजी एव उनके उन्होने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुलतान से प्राप्ता शिष्य जिनदेवसूरि की विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर कर दिल्ली के जैन मन्दिर मे स्थापित करायी थी। पीछे से सुलतान ने शत्रुजय, गिरनार, फलौदी मादि तीयों की रक्षा मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के शिष्य 'जिनदेवसूरिको के लिए फरमान दिए। कल्प के रचयिता ने अन्त में सुरत्तान सराइ दी थी' जिनमे चार सो श्रावकों के घर, लिखा है कि महम्मदशाह को प्रभावित करके जिनप्रभसूरिपौषषशालाब मन्दिर बनाया उसी में उक्त महावीर जी ने बड़ी शासन प्रभावना एव उन्नति की। इस प्रकार स्वामी को बिराजमान किया गया। इनकी पूजा व भक्ति पचमकाल मे चतुर्थ पारे का भास कराया। श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर और अन्य मताव- उपयुक्त कम्नापय महावीर कल्प का परिवेष रूप सम्बो भी करते रहे हैं।
अन्य कल्प सिंहातिमकसूरि के पादेश से विवातिलक मुनि