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३६, ३३, किरण ४
अनेकान्स
अनध्यं नवरत्न प्रतिमाम्रों से हैं। घबलादि ग्रंथ कन्नड लिपि मे लिखे हैं, इनको करीब ८५० वर्ष हो गये हैं । जब उत्तर भारत में शास्त्र ग्रंथ कागज पर लिखे जाते थे, तब दक्षिण में द्राविड लिपि के प्रथ ताडपत्र में सुई से कुरेद कर ऊपर से स्याही भरे जाने की प्रथा थी। लेकिन प्राचर्य यह है कि ये तीनों ग्रथ सुई से न लिखे जाकर लेखनी द्वारा लाख की स्याही से लिखे गये हैं । यह नयी खोज उक्त लिपिकारों की अपनी ही है। बाद के किसी भी लिपिकार ने इस प्रथा को नहीं अपनाया। इस जिले में प्राप्त सहस्रशः ताडपत्रीय ग्रंथों में ये तीन मात्र ग्रंथ स्याही से लिखे गये हैं ।
इसी 'गुरुबसदि' में वज्र, मरकत, माणिक्य, नील, वे प्रादि बहुमूल्य रत्नों से निर्मित प्रद्वितीय व धनुपम जिन प्रतिमाएं है। मूडबिद्री के प्राचीन श्रावक जहाजों के द्वारा द्वीपान्तर जाकर वाणिज्य करने में प्रसिद्ध थे । वे रेडिया, अफ्रीका प्रादि पश्चिम देशों मे धौर मलाया, जावा, इन्डोनेसिया, चीन प्रादि सुदूरपूर्व देशो मे जाकर व्यापार करते थे प्रतएव जिराफ चैनीस ड्रागन प्रादि प्राणियों से परिचित इन लोगों ने 'त्रिभुवनतिल कचूडामणिमन्दिर की प्राधारशिला में इन विचित्र प्राणियों को धाकृतियाँ विभिन्न ढगो मे भाकर्षक भगियों मे खुदवाई । 'त्रिभुवनतिलकचूडामणि मन्दिर' के 'भेरोदेवी मण्डप' के निचले भाग के पत्थर मे जिराफ मृग पोर चीनि गन के चित्र चित्रित हैं। यह जिसका मृग ग्राफिका मे जाता है। मोर डूंगन तो चीन देश मे पाया जाता है । यह वहाँ का पुराण प्रसिद्ध प्राणि है । यह मकर (मगर) प्राकृति का जलचर है। विदेश के यह प्राणि यहाँ पर चित्रित होने से सहज ही धनुमान लगा सकते हैं कि उस समय के जैन श्रावक व्यापारार्थ इन देशों में भी गये होगे व व्यापारिक संपर्क बढ़ जाने से वहाँ के रहने वाले प्राणि यहाँ पर चित्रित हुए होगे ।
पाया
मूडबिद के मन्दिर क्या है ? शिलालेखों, शिल्पकला ब शिलापat का प्रागार ही हैं। एक मज्ञात कवि ने शिलालेख मे तत्कालीन 'वंशपुर' ( मूडबिद्रो) का निम्न प्रकार से वर्णन किया है :
"सुम्दर बाग-बगीचे, विकसित पुष्पों की सुगन्ध से,
व्याप्त हवा से चारों मोर से सुशोभित, बाह्य प्रदेशों मे घिरा हुम्रा, उत्तम जिनमन्दिरों से पवित्र एवं रम्य प्रावास गृहों से सुशोभित यह मूडबिद्री देवांगनाओंों के समान पुण्य स्त्रियों के विराजने से सुन्दर हैं ।"
fat के एक और शासन मे तत्कालीन 'वेणुपुर' का जीता जागता चित्रण निम्न रूप में है :
" तुलुदेश मे वेणुपुर नाम का एक विशिष्ट नगर सुशोभित है। यहाँ पर जैन धर्मानुयायी सुपात्र दानादि उत्साह से करने वाले भव्यजीव विराजमान है । साधु-सतो से वे श्रद्धापूर्वक शुद्ध मन से जैन शास्त्र का श्रवण करते हैं। इस प्रकार यह वेणुपुर सुशील सत्पुरुषों से शोभित है ।" मूडबिद्री का गुरुपीठ या भट्टारक का गादी पीठ :
यहाँ के गुरुपीठ की स्थापना ई० सन् १२२० मे श्रवणबेलगोला के मठ के स्वस्ति श्री चारुकीर्ति पण्डिताचार्य स्वामीजी ने की थी । द्वारसमुद्र ( हेळे बीड) क राजा बिष्ट्ठिदेवने (सन् १९०४ - ११४१ ) जैन धर्म को छोड़कर वैष्णव धर्म स्वीकार किया और विष्णुवर्धन कहलाया । मतांतरी राजा विष्णुवर्धन ने भनेको जैन जिनालयों को तुड़वाया, मौर बन्धुनों को मरवा डाला । इस प्रत्याचार के फलस्वरूप मानो वहाँ की जमीन पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी। लोगों और प्राणियों की बड़ी हानि हुई । क्रि० श० ११७२ से १२१६ तक यहाँ के शासन करने वाले वीर बल्लाल राय ने उस घोर उपसगं से बचने के लिए श्रवणबेलगोला के श्री चारुकीति स्वामी जी से प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना मान कर स्वामीजी द्वारसमुद्र प्राये । भगवान् पार्श्वप्रभु की 'कलिकुण्ड धाराधना' करते हुए मन्त्रपूत 'कूष्माण्डो (कुम्हडों) से दरारें पाट दी, जमीन पूर्ववत् हो गई ।
वहाँ से श्री स्वामीजी सोधे दक्षिण कन्नड जिले के कार्कल तालूक के 'नल्लूर' माये मोर वहाँ एक मठ की स्थापना की। वहाँ से मूडबिद्री के सिद्धान्त दर्शन करने यहाँ घाये और यहाँ पर मी सन् १२२० में एक मठ की स्थापना की। इस तरह यह दोनों मठ श्रवणबेलगोला के शाखा मठ होने के कारण यहाँ के मठाधिपति भी 'बाह कीर्ति' अभिधान से प्रसिद्ध हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि बाज से ७६० वर्ष पहले यहाँ के मठ की स्थापना हुई थी।