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इन्द्रगिरि के गोमटेश्वर
यत्र सीढ़िया बनवाई। दरवाजे पर ही एक भव्यात्मा रावण और रावण की रानी मन्दोदरी ने बल्लोष. गुल्लकाय देवी की मूर्ति है।
गोम्मटेश्वर की बन्दना की थी। इसके पश्चात् अभिषेक की तैयारी हई। उस समय
मनिवशाम्युदय काव्य मे लिखा है कि गोम्मट की एक वृद्धा महिला गल्ल कायजी नाम की, एक नारियल की मतिको राम और सीता लङ्का से लाए थे। वे इसका पूजन प्याली मे अभिषेक के लिए थोड़ा-सा अपनी गाय का दूध करते थे। जाते समय वे इस मति को उठाने में असमर्ष ले पाई मौर लोगों से कहने लगी कि मुझे अभिषेक के रहे इसी से वे उन्हें इस स्थान पर छोड़कर चले गए। लिए यह दूध लेकर जाने दो, पर विचारी बुढ़िया की कोन
उपर्युक्त प्रमाणों से यही विवित होता है कि इस मति सुनना ? वृद्धा प्रतिदिन सबेरे गाय का दूध लेकर माती
की स्थापना चामुण्डराय ने ही कराई थी। ५७ फुट की पोर प्रधेरा होने पर निराश होकर घर लौट जाती। इस
मूर्ति खोद निकालने योग्य पाषाण कहीं और स्थान से प्रकार एक मास बीत गया। अभिषेक का दिन भाया पर
लाकर इतने ऊंचे पर्वत पर प्रतिष्ठित किया जाना बुद्धिमम्म चामण्डराय ने जितना भी दुग्ध एकत्रित कराया उससे
नही है। इसी पहाड़ पर प्रकृति-प्रदत्त स्तम्माकार चट्टान अभिषेक न हुआ। हजागे घड़े घ डालने पर भी दुग्ध
काट कर इम मूति का निर्माण हुमा है। मूर्ति के सम्मुख मोम्मटेश्वर को कटि तक भी न पहुंचा। चामुण्डराय ने
का मण्डप नव सौन्दर्य से खचित छतों से सजा हुपा है। घबरा कर प्रतिष्ठाचार्य से कारण पूछा । उन्होने बतलाया
गोम्मटेश्वरको प्रतिष्ठा पोर उपासना कि मति निर्माण पर जो तुझमे कुछ गर्व की प्राभा-सोमा गई है इसलिए दुग्ध कटि से नीचे नहीं उतरता। उन्होंने बाहबली चरिष मे गोम्मटेश्वर की प्रतिष्ठा का समय प्रदेश दिया कि जो दुग्ध वृद्धा गुल्लि काया मपनी कटारी कल्कि सवत ६०० में विभवसवत्सर चंच शुक्ल ५ रविवार मे लाई है उससे अभिषेक कराम्रो। चामुण्डराय ने ऐसा को कम्भ लग्न, सौभाग्ययोग, मृगशिरा नक्षत्र लिखा है। हो किया. और उस प्रत्यल्प दुग्ध को धारा गोम्मटेश के विद्वानों ने इस संवत की तिथि २३ मार्च सन् १०२८ मस्तक पर छोड़ते ही न केवल ममस्त मूर्ति का अभिषेक
निश्चित की है। हपा बल्कि सारी पहाड़ी दुग्धमय हो गई चामुण्डराय को
प्रश्न हो सकता है कि बाहबनीको मति की उपासना ज्ञान हुप्रा कि इतनी मेहनत, इतना व्यय और इतना वैभव भक्ति भी एक दुग्ध को कटोरी के सामने तुच्छ है।
कसे प्रचलित हुई। इसका प्रथम कारण यह है कि इस
प्रवपिणी काल ये सब प्रथम भगवान ऋषभदेव से भो इसके पश्चात् चामुण्डगय ने पहाडी के नीचे एक पहले मोक्ष जाने वाले अत्रिय वीर बाहुबली ही थे। इस नगर बसाया भोर मूर्ति के लिए ६६,००० वरह को प्राय यग के प्रादि में इन्होने ही सर्वप्रथम मुक्ति-पथ प्रदर्षन के गांव लगा दिए। अपने गुरु प्रजितसेन के कहने पर उस
पाजतसन क कहन पर उस किया। दूसरा कारण यह हो सकता है कि बाहुबली के गाव का-नाम श्रमणबेल्मोल रखा और उस गुलकायज्जि
अपूर्व त्याग, अलौकिक पात्मनिग्रह और निज बाधु-प्रेम बृद्धा को मूर्ति भी बनवाई।
मादि प्रसाधारण एवं प्रमानुषिक गुणों ने सर्वप्रथम अपने गोम्मटेश्वर चरित' में लिखा है कि चामुण्डराय के बड़े भाई सम्राट भरत को इन्हें पूजने को बाध्य किया पौर स्वर्णवाण चलाने से जो गोम्मट को मूर्ति प्रकट हुई थी, तत्पश्चात् पौरों ने मी भरत का अनुकरण किया। चामण्डराय ने उसे मूर्तिकारों से सुघटित कराकर अभि
चामुण्डराय स्वयं वीरमार्तण्ड थे, सुयोग्य सेनापति थे। प्रतः षिक्त मोर प्रतिष्ठित कराई।
उनके लिए महाबाहु बाहुबली से बढ़ कर दूसरा कोई 'सलपुराण' के अनुसार चामुण्डराय ने मूर्ति के हेतु प्रादशं व्यक्ति न पा। यही कारण है कि अन्य क्षत्रियों ने एक लाख छयानवे वरह की प्राय के ग्रामों का दान दिया। भी चामुण्डराय का अनुसरण करके कारकल और वेलूर में
राजावलिकथा के अनुसार प्राचीन काल में राम, गोम्मटेश की मूर्तियां स्थापित कराई।