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जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पिल्य
उसने निकटवर्ती पिप्पलग्राम (वर्तमान पिपरगांव) में जन धर्म में दीक्षित किया जाना पौर मुनि बन कर मारमराजा रत्मप्रभ द्वारा निर्मापित सरोवर के तट पर एक कल्याण करना, कम्पिल्य के जिनधर्मी विद्वान राजा धर्मरुचि सुन्दर जिनालय बनवाया था। पिण्याकगन्ध का पुत्र विष्णु का काशि नरेश को शास्त्रार्थ में पराजित करना मादि।" दत्त कला-विज्ञान-पराग था जिसने एक ऐसे दर्पण का धनेश्वरसरि के अनुसार काम्पिल्य नगर में महाराज पाविष्कार किया था। जिसमें देखने वाले को दो मुख विक्रमादित्य के समय में भावड़ नाम के लोथ्याधिपति जैन दीखते थे। इसी नगर में राजा नरसिंह के शासन काल श्रेष्ठ रहते थे जो बडे पुरुषार्थी थे। जल भोर थल दोनों में राज्यष्ठि कुबेरदत्त था जो महाधनवान था और गार्गों में विदेशो मे उनका व्यापार होता था। वह एक जिसका व्यापार जलमार्ग द्वारा द्वीपान्तरो मे भी फैला बार सर्वथा निर्धन हो गए और पुन: धनकुबेर तथा राज्य हना था । वह धर्मकार्यों में भी अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग मान्य बन गए भावर ने अनेक जिनवंदिर बनवाए तथा करता था। उसकी सेठानी प्रिय सुन्दरी अतिशय भवद्रूप- शत्रुजय तीर्थ का उद्धार किया बताया जाता है। लावण्य-यौवन-युक्त थी जिसपर मत्रीपुत्र नरस्त्री लम्पट १५८६ ई० मे यति जयविजयने कपिल की यात्रा की कडारिपिंड प्रासक्त हो गया। उसका पिता सुमति मत्री और लिखा "पिटापारिपूरि कपिल, विमल जम्म बन्देश, भी उसके षडयन्त्र में सम्मिलित हो गया, किन्तु ये लोग चलणी चरित्र सभालियो ब्रह्मदत परवेस । केसर धनराथ विफल मनोरथ हापौर राजा द्वारा दंडित हुए। काम्पिल्य सजतीगर्दभिलगुरुपासि, गगातटवन उबरई, द्रुपदी पीहर का भीम नामक एक राज कुमार मनुष्य-मास भक्षी हो गया वासि ।" प्रादि।" था जिसके कारण उसे राज्यभ्रष्ट, स्वदेश से निर्वाचित १८०७ ई० में विजयसागर जी ने कंपिल की यात्रा और दुर्गति का पात्र होना पड़ा। प्राचार्य जिनप्रभसूरि की पौर लिखाने १४वीं शती ई० के प्रथम पाद में कंपिल की यात्रा की कंपिलपुर वर मडणोपूनई विमल विहार रे । थी पोर उन्होंने इस स्थान का तात्कालिक वर्णन करने के विमल पादुका वदीया लीजई विमल अवतार रे॥" अतिरिक्त तत्सम्बन्धी कतिपय प्राचीन अनुश्रुतियों का भी कवि सदानंद जी कपिल-रथयात्रावर्णन (१८३० उल्लेख किया है, यथा कम्पिल्प नरेश संजय का नगर के ई०) का पहले ही उल्लेख कर पाए हैं । इस प्रकार पवित्र केसर उद्यान मे गर्दभिल्ल श्रमण से उपदेश ग्रहण करना, क्षेत्र कंपिला (कम्पिल्प) के जैन साहित्य में प्रचर उल्लेख काम्पिल्य के राजकूमार मागली का गोतम गणधर द्वारा प्राप्त हैं।
--चारबाग, लखनऊ
२८. भगवती माराधना ११४०, वृहत्कथाकोष पृ० २५५. ३१. विविधतीथंकल्प मिषी प्र. भा०) पृ० ५०
२५६, पारावना सत्कथाप्रबध, न० ३१ पृ० ५२, ३२. देखिए-धनेश्वरमूरिक्त शत्रु जय माहात्म्य बृहत्कथाकोष न० ८२ पृ० २०३
३३. काम्पिल्यकीर्ति, पृ० ३१ ३०. भगवती प्राराधना १३५७, पाराधनाकथाप्रबंध नं. ३४. वही
५५ पृ० ७६ वृहत्कथा कोष नं० ११५ पृ० २८७ ३५. वी पृष्ठ ५२