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________________ बाहुबली और दक्षिण को जैन परम्परा 0 श्री टी० एन० रामचन्द्रन् मसर में श्रवणबेल्गोल नगर मे विध्यगिरि पर्वत पर पूर्णता पौर प्रध्यक्त मानन्द की जनक है और मूर्ति की जो गोम्मटेश्वर की विशाल मूति है, वह प्रथम तीर्थंकर अग्रभूमि काल, अन्तर, भक्ति और नित्यता की उद्बोधक ऋषभदेव की महारानी सुनन्दा के पुत्र बाहुबली की है। है । यद्यपि दक्षिण भारत में कारकल पौर वेणर में भी दक्षिण भारत में जैन धर्म का स्वर्णयुग साधारणतया मौर बाहुबली की विशाल मूर्तियां एक ही पाषाण में उत्कीर्ण कर्नाटक में विशेषतया गंगवंश के शासको के समय में था, की हुई हैं तथापि श्रवणबेल्गोल की यह भूति सबसे अधिक जिन्होंने जैन धर्म को राष्ट्र-धर्म के रूप में प्रमीकार किया प्राकर्षक होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है। था। महान् जैनाचार्य सिंहनन्दी गंगराष्ट्र की नीव डालने बाहुबली की मूर्ति का इतिवृत्त हमे दक्षिण भारत के केही निमित्त न थे, बल्कि गंगराष्ट्र के प्रथम नरेश जैनधर्म के रोचक इतिहास की भोर ले जाता है। श्रवणकोगुणिवर्मन के परामर्शदाता भी थे। माधव (द्वितीय) बेल्गोल में उत्कोणं शिलालेखों के प्राधार पर इस बात ने दिगम्बर जैनों को दानपत्र दिये। इनका राज्यकाल का पता लगता है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के समय मे ईसा के ४५०-५६५ रहा है। विनीत को वन्दनीय पूज्य. अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु १२००० जैन श्रमणों का सघ पादाचार्य के चरणो मे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुमा। लेकर उत्तरापथ से दक्षिणापथ को गये थे। उनके साथ इनका राज्यकाल ई० ६०५ से ६५० रहा है। ई० ६५० चन्द्रगुप्त भी थे । प्रोफेसर जेकोबी का अनुमान है कि यह में दुविनीत के पुत्र मशकारा ने जैनधर्म को राष्ट्रधर्म देशाटन ईसा से २६७ वर्ष से कुछ पूर्व हुमा था। भद्रबाहु घोषित किया। बाद के गंग-शासक जैनधर्म के कट्टर ने अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचने से पूर्व ही मार्ग में चन्द्रसंरक्षक रहे हैं। गगनरेश मारसिंह (तृतीय) के समय मे पिरि पर्वत पर समाधिमरण-पूर्वक देह का विसर्जन किया। उनके सेनापति चामुण्डराय ने बवणबेल्योल मे गोम्मटेश्वर इस देशाटन की महत्ता इस बात की सूचक है कि दक्षिण की विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। मारसिंह का राज्य- भारत में जैनधर्म की व्यापक प्रभावना इसी समय मे हुई काल ईसा की ६६१.९७४ रहा है। जैनधर्म मे जो अपूर्व है। इसी देशाटन के समय से जैन श्रमण-संघ दिगम्बर स्वाग कहा जाता है, मारसिंह ने उस सल्लेखना द्वारा प्रौर श्वेताम्बर दो भागों में विभक्त हुमा है। भद्रवाह के पोत्सर्ग करके अपने जीवन को अमर किया। राजमल्ल संघ गमन को देखकर कालिकाचार्य भोर विशाखाचार्य के (प्रथम) ने मद्रास राज्यातयंत उत्तरी भारकोट जिले में संघ ने भी उन्हीं का अनुसरण किया। विद्याखाचार्य जंग गुफाएँ बनवाई। इनका राज्यकाल . ८१७-८२८ दिगम्बर सम्प्रदाय के महान् भाचार्य थे जो दक्षिण भारत रहा है। इनका पुत्र नीतिमार्ग एक अच्छा न था। के चोस पोर पांग्प देश में गये। महान् प्राचार्य कूदकर बाहुबली के त्याग और गहन तपश्चर्या की कथा को के समय मे तामिल देश मे जैनधर्म की ख्याति मे और गुणप्राही जनों ने बड़ा महत्व दिया है और एक महान् भी वृद्धि हुई। कुन्दकुन्दाचार्य द्वाविण ये भोर स्पष्टतया प्रस्तर खण की विशाल मूति बना कर उनके सिद्धान्तों दक्षिण भारत के जैनाचार्यों में प्रथम थे। कांचीपुर मोर का प्रचार किया है, जो इस रात का द्योतक है कि बाहु- मदुरा के राजदरबार तामिल देश मे जैनधर्म के प्रचार मे बली की उक्त मूर्ति स्याग, भक्ति, अहिंसा भौर परम विशेष सहायक थे। जब चीनी यात्री युवान वांग ईसा मानन्द की प्रतीक है। उस मूर्ति की पृष्ठभूमि विस्तीर्णता, की मीं पताम्दी में इन दोनों नगरों मे गया तो उसने
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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