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________________ श्री पुण्य कुशल गणि और उनका 'भरतबाहुबलि-महाकाव्यम्' - महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन 'भरतबाहुबलि महाकाव्यम्' विक्रम की १७वीं शती में केवल पदों का संक्षिप्त पर्थ होता है। यह प्रस्तुत काव्य के प्रभावक प्राचार्य, श्री पुण्यकुशलगणि की संस्कृत का व्याख्या-ग्रन्थ है। यह अपूर्ण उपलब्ध हुई है। इसमें भाषा में निबद्ध एक मनोहर रचना है। इसकी पञ्जिका भरतबाहुबलि महाकाव्यम् के ग्यारहवें सर्ग तक की नामक एक लघुटीका भी उपलब्ध है जिसका कर्तृत्व व्याख्या है। सुनिश्चित नही है। पत्रिका के साथ इस महाकाव्य का पंजिका के प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक इलोक सुन्दर प्रकाशन सर्वप्रथम ई० १९४७ मे भगवान महावीर जिसके द्वितीय एवं चतुर्थचरण प्रायः भिन्न है और प्रथम की २५वी निर्वाण शती के उपलक्ष्य मे "विश्व भारती' एव तृतीय चरण सभी में समान है। तृतीय चरण में लाडन् (राजस्थान) से किया गया। इस प्रकाशन के प्रेरक 'पुण्यकुशल' शब्द का प्रयोग मिलता है। श्वेताम्बर तेरह पथ के पाचार्य श्री तुलसी गणि, सम्पादक कथाबस्तु : मुनि श्री नथमल भौर हिन्दी अनुवादक मुनि श्री महाराज भरत ने समस्त पार्यावर्त का राज्य अपने दुलहराज हैं। सौ पुत्रों में विभक्त कर प्रवज्या ग्रहण की। ज्येष्ठ पुत्र काव्यकर्ता और उनका समय: भरत को पयोध्या तथा द्वितीय पुत्र बाहुबली को बहलीसस्कृत साहित्य की परम्परा के अनुसार काव्यकर्ता प्रदेश (तक्षशिला) का राज्य प्राप्त हुमा । श्री पुण्यकुशलगणि ने काव्य मे अपना नाम कहीं पर भी सम्राट भरत सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय यात्रा करके नहीं लिखा है। तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक जब अपनी राजधानी लौटे तो उनका चक्ररत्न प्रायुधशाला सर्ग के अंतिम इलोक में 'पुण्योदय' शब्द का प्रयोग करके में प्रविष्ट नही हुमा क्योंकि उनके मनुज महाराज बाहुबली उन्होंने अपने नाम का संकेत कर दिया है। यथा ने चक्रवर्ती सम्राट् भरत के शासन को स्वीकार नहीं "भरतनपतिवारः सोऽथ संयोज्य प्राणी किया था। भरत ने बाहुबली को अपना शासन स्वीकारने क्षितिपतिमवनम्यात्यन्तपुण्योदयादयम् ।" (७६) का संदेश देकर एक दूत को उनके पास भेजा। काव्य का (भरतबाहुबलि महाकाव्यम् -प्रथम सगं अंतिम इलोक) प्रारंभ यहीं से होता है। पञ्जिकायुक्त प्रति में प्रत्येक सर्ग के प्रत में सर्गपूति जब महाराज बाहुबली ने भरत के शासन को को कुछ पंक्तियां लिखी हैं, उनसे ज्ञात होता है कि श्री स्वीकार नहीं किया तो भरत ने अपने सेनापति के परामर्श पुण्य कुशलगणि तपागच्छ के श्री विजयसूरी के प्रशिष्य से युद्ध की घोषणा कर दी। दोनों की सेनामों में घमासान भौर पं० सोमकुशलगणि के शिष्य थे। उन्होंने प्रस्तुत युद्ध हुमा। युद्ध की भीषणता को देख कर देवगण भूमि काव्य विजयसेन सरि के शासनकाल मे लिखा । विजयसेन पर पाए और दोनो को संबोधित किया। अंत मे निश्चय सूरी का पस्तित्व काल विक्रम की १७वीं शती है। प्रतः हुमा कि सर्व-सहारी हिंसा से बचाने के लिए दोनों योबा, यह मानना उपयुक्त होगा कि प्रस्तुत काव्य की रचना प्रापस मे दृष्टि, मुष्टि, शब्द मोर दण्ड युद्धों के द्वारा विक्रम को १७वीं शताब्दी के मध्य हुई। विजय का निर्णय करें। पंजिका : सम्राट् भरत चारों युद्धों मे बाहुबली से हार गए । 'पंजिका पद्धज्जिका' इस वाक्य के अनुसार पंजिका प्रतिशय कोष में भरत ने परत्न से बाइबलीको मष्ट
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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