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________________ ५१ वर्ष ३३, किरण ४ को प्राकृष्ट पोर माध्यामित किए हुए है तथा विश्व इतिहास एव पुरातत्व की बहुमूल्य धरोहर बन गई है । जय हो उस चागव की जय हो उस शिल्पी की जय हो, जय हो उस स्यागमूर्ति तक्षक कलाकार की। अनेकान्स भ० बाहुबलि की इस विराट प्रतिमा के प्रतिष्ठाचार्य ये सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्य श्री नेमिचन्द्राचार्य जो प्रधानामात्य चामुण्डराय के गुरु थे। उन्हीं के निर्देशन में यह सब कुछ हुआ था जब प्रतिमा का निर्माण हो चुका तो इसकी प्रतिष्ठा के लिए सर्वप्रथम महामस्तकाभिषेक का प्रायोजन किया गया जिसके लिए हजारों मन दूध से प्रतिमा का अभिषेक किया गया पर प्राइवयं की बात कि सारा दूध नाभि से नीचे नहीं पहुंच रहा था। प्रतिष्ठाचार्य प्रधानामाय एवं अन्य सभी विशिष्ट उपस्थित पुरुष विस्मय विमुग्ध थे कि यह सब क्या हो रहा है। सभी चिन्तित थे तभी नेमिचन्द्राचार्य श्री ने अपने निमित ज्ञान से जाना कि म० महावीर के समोशरण में अपनी कमल पां लेकर प्रभु धर्चा के लिए फुदक कर जाने वाले उपेक्षित मण्डराज की भांति यहां भी कोई उपेक्षित बुद्धा श्रीफल की छोटी-सी गुल्लिका (कटोरी में दूध लिए प्रभु का अभिषेक के लिए भक्तिपूर्वक एक मास से लगातार घा रही है पर इस विशाल जन समूह में उसे कही भी कोई स्थान नहीं मिल पा रहा है। यह सर्वच उपेक्षिता है इसीलिए यह दुग्धाभिषेकपूर्ण नहीं हो पा रहा है। म० बाहुबलि के प्रतिष्टाचार्य ने तुरन्त हो अपने शिष्य प्रधानामात्य को प्रादेश दिया कि उस बुद्धा को बादर पूर्वक लाभो तभी अभिषेक सम्पन्न हो सकेगा। गुरु भक्त चामुण्डराय तुरन्त ही नगे पांव अजिज (बुद्धा) के पास पहुंचे और बादर पूर्वक प्रार्थना करके उस प्रजिमा देसी मेधावी दादी मां को प्रभु प्रतिमा के पास से ) बाये घोर दुग्धाभिषेक के लिए अनुरोध किया, जैसे ही afra ने गुल्लिका भर दूध से प्रभु का भक्तिभाव से अभिषेक किया वैसे ही दूध की नदियाँ बह निकली धोर विन्ध्यगिरि तथा चन्द्रगिरि के मध्य स्थित सरोवर दूध के लबालब भर गया तभी से उस वृद्धा का नाम गुल्लिकाज्जि पर गया। कहते हैं गुलकाजि के रूप में स्वयं कूष्माण्डकी देवी ही थी जिन्होंने चामुण्डराय को स्वप्न दिया था कि गिरि से स्वर्ण बाण छोड़ो भ० बाहुबलि के दर्शन होगे। भ० बाहुबलि का प्रथम महामस्तकाभिषेक समारोह पूर्वक सानन्द सम्पन्न हुआ पर प्रधानामात्य चामुण्डराय के प्रन्तस्तल मे उपर्युक्त दो भक्त सायको ( चागद मौर गुल्लि काज्जि) की श्रद्धा और निष्ठा के प्रति एक प्रतीव रागात्मक सद्भाव उत्पन्न हुधा तः उन्होंने भ० बाहुबलि के चिरस्थायीत्व की भांति इन दोनो साधको की भक्तिभावना को चिरस्थायीत्व देने के लिए प्रतिमा के पास ही छह फुट ऊंचा चागदस्तभ तथा गुल्लिकाउिज की प्रतिमा का निर्माण कराया जा श्राज भी उनकी यशोगाथा गा रहे हैं। भ० बाहुबलि की प्रतिमा के शिल्पी वागद के स्तंभ की एक बड़ी भारी विशेषता है कि यह घर मे विद्यमान है इसके नीचे से एक रूमाल जैसा पतला कपड़ा अभी भी निकल जाता है। उस बागद स्तंभ पर चामुण्डरा की प्रशंसा मे छह लोक उत्कीर्ण है शेष को हेगडे कण्न ने बिसवा दिया वा प्रत्यया चामुण्डराय तथ्य इस प्रतिमा के निर्माण संबंधी कुछ और ऐतिहासिक तथ्य हस्तगत हो जाते जिससे भारतीय इतिहास और पुरातत्व और अधिक गौरवान्वित हो जाता, पर विधि को यह सब मजूर न था । इस स्तंभ पर प्रधान शिल्पी त्यागद ब्रह्मदेव ( चागद) की प्रतिमा विराजमान है। जय हो गुल्लिकाज्जि की और जय हो बागद शिल्पी जैसे भक्त साधको की जो उपेक्षित होते हुए भी भारतीयों को ही नहीं सपूर्ण विश्व को ऐसी बहुमूल्य धरोहर दे गये। "जय चागद जय गुल्लकाज्जि" goo घुतकुटीर, ६० कुम्तीगार्म विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली- ११००३२
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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