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________________ अपदेस सत्तमज्झं श्री 'समयसार' की १५वीं गाथा के तृतीय चरण के दो रूप मिलते हैं- (१) 'श्रवदेससुत्तमम्भ' धोर (२) 'प्रपदेश संतमज्' । प्रोर इस पर संस्कृत टीकाएँ भी दो प्राचायों को मिलती हैं- श्री जयसेनाचार्य पौर श्री मृतचन्द्राचार्य को । प्राचार्य जयसेन की टीका के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके समक्ष 'प्रपदेससुत्तमज्झ' पद रहा भोर उन्होंने इसी पद को प्राश्रय कर टीका लिखी । टीका मे पूरे पद को जिन शासन का विशेषण माना गया है और 'सुत्त' शब्द को दृष्टि में रख कर तदनुसार ही 'प्रपदेस' शब्द का व्युत्पत्तिपरक घर्थ विठाया गया है। उक्त अर्थ 'सुत्त' शब्द के सन्दर्भ में पूरा-पूरा सही और विधिपूर्ण बैठ रहा है । कदाचित यदि 'सत' शब्द किन्हीं प्रतियो मे न होता तो पूरे पद के प्रथं मे संभवतः प्रवश्य ही विवाद न उठता । प्राचार्य जयसेन अपनी टीका मे लिखते है - 'प्रदेससुत्त मज्भ' प्रपदेशसूत्रमध्य प्रपदिश्यतेऽर्थो येन स भवत्यपदेशः शब्दो द्रव्यश्रुतम् इति यावत् सूत्र परिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमयइति तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञान समयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भाष्यत इति ।' जिससे पदार्थ बताया- दर्शाया जाता है वह 'प्रपदेस' होता है अर्थात् शब्द | यानी द्रव्यश्रुत । 'सुत्तं' का भाव है ज्ञान समय प्रर्थात् भावश्रुत। ये भाव उक्त टीका से स्पष्ट फलित होता है । इन प्राचार्य ने 'संत' शब्द का अपनी टीका में कही कोई भो उल्लेख नही किया । जहाँ तक श्री प्रमृतचन्द्राचार्य की टीका का संबंध है, उन्होंने १५वी गाथा को पूर्व प्रसंग मे भाई १४वी गाथा के प्रकाश मे देखा है। उनके समक्ष 'सुत्त' शब्द रहा प्रतीत नहीं होता अन्यथा कोई कारण नहीं कि वे टीका में उसे न छूते । उनकी दोनों गाथाओंों को (दोनों की टीकामों मे ) [] श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली समता तो है ही साथ ही प्रात्मा और जिनशासन में अभेदमूलक भाव (गाथाओं के अनुरूप ) भी है पर उन्होंने गाथा के तृतीय चरण को श्री जयसेनाचार्य की भाँति, जिनवाणी का विशेषण नही बनाया भोर तृतीय चरण की टीका भरमा का विशेषण बना कर ही लिखी । ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य ही उनके समक्ष 'सुत' के स्थान पर कोई ऐसा अन्य शब्द रहा होगा जो १४वीं गाथा में गुहीत श्रात्मा के सभी (पाच) विशेषणों की संख्या पूर्ति करता हो । वह शब्द क्या हो सकता है ? क्या 'संत' सत्त' या 'मत्त' जैसा कोई अन्य शब्द भी हो सकता है ? यह विचारणीय है । हमारे समक्ष १४बों व १५वीं दोनों गाथाएँ श्रौर दोनों पर श्री प्रमृतचन्द्राचार्य की टीकाएँ उपस्थित हैंगाथा १४ - जो परसदि श्रप्पाण प्रबद्धपुट्ठे भ्रणण्णयणियद । प्रविसे समजुत्त ।। १४ ।। समयसार टीका- 'या खलु प्रबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सात्वनुभूतिरात्मव ।' गाथा १५- 'जो पस्सदि प्रप्पाणं प्रबद्धपुट्ठे घणण्णम विसेसं । प्रपदेस संत मज्भं... ।।१५।। समयसार टोका-येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्थासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः शासनस्यानुभूतिः ।--- उक्त दोनो गाथाएँ और उनकी टीकाएँ भ्रात्मानुभूति व जिनशासन धनुभूति (दोनों) मे प्रभेदपन दर्शाती हैं प्रर्थात् जो प्रात्मानुभूति है घोर जो जिनशासन की अनुभूति है वही प्रात्मानुभूति है । प्रथम गाथा नम्बर १४ में मात्मा के पांच विशेषण हैं- ( १ ) प्रबद्धस्पृष्ट (२) अनन्य ( ३ ) नियत (४) जिन
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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