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________________ जागरण 0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली प्रज्ञान ही हार है और ज्ञान ही विजय है। नीद में परमात्मा को जानने के लिए स्वयं को जानना जरूरी हाँख को कभी पता नहीं लगता कि पार कब मोये। यह है पोर सत्य को जानने के लिए पहले स्वय को पहखानना तो जागकर ही पता चलता है कि प्राप कब सोये पोर जरूरी है। वस्तु से जो परिचय है वह विज्ञान नीद का अनुभव जागने पर ही होता है। जो लोग सोये है और स्वय से जो परिचय है वह ज्ञान है। हुए हैं। मूर्या में पड़े हुए है, उनको अवस्था का तब पता जो स्त्रय को नही जानता उसके लिए ईश्वर मृत लगेगा जब वे जान जायेंगे कि वे सोये थे अथवा मूछित थे है। चाहे वह कितनी ही पूजा करे और कितना ही वास्तव में व्यक्ति कभी-कभी ही जागना है। वह कोई दान करें। अगर उसने स्वयं को जानने का काम नही खाम क्षण होता है। मान लो अचानक किसी की छाती पर किया तो एक क्षण के लिए भी उसका परमात्मा से सबंध छुरा रख दिया जाए तो उस क्षण वह जाग जाएगा, उस नही हो सकता। परन्तु स्वय का जानने का पुरुषार्थ कर भण वह सोया नही रह सकता। छूरे का एक-एक क्षण पाने के लिए भी अपने प्रज्ञान का बोध चाहिए । यह नीचे सरकना उनको जानकारी मे हो रहा होगा परन्तु समझ मे माना चाहिए कि मैं कुछ भी नही हू, मैं कुछ उस समय भी वह उसी क्रिया मात्र के लिए जाग रहा नही जानता है। लेकिन उसका बहकार कहता है कि मैं होगा। वह मपने पाप मे जागा नही है। अपने प्रापद बहुत कुछ जानता है। धन छोड़ देना बहुत मासान है, जागना तब कहलाएगा जब उसको यह अनुभव हो जाए परन्तु ज्ञान का प्रहार छोडना बहुत कठिन है । इसलिए कि वह जानने वाला है और दुनिया के पार पदाथ सारी जो लोग घन छोडकर भाग जाते है वे लोग भी ज्ञान का चीजे जो है वे उसके समक्ष दृश्य है। ज्ञानी कहते है ग्रहकार नही छोड पाते । प्रादमी मब घर-बार छोड देता विवेक से चलो। उसका मतलब है कि जो क्रिया हो रही है लेकिन अपनी जाति को नही छोडता । अगर वह जाति है. उसी मे ज.गो, प्रमाद न करो। ज्ञानी किसको कहा है विशेष को नही छोड़ सकता तो स्पष्ट है कि अभी भी जो किसी खास प्रकार की किया करता है उसका ज्ञाना, उसने कल पकड रखा है जो प्रात्मा की अपनी चीजनही नही कहते य जो नग्न साधु वेष धारण करता है उसको है। धन बाहर की चीज है। उसे छोड़ा जाए तो जो ज्ञानी नही कहते । ज्ञानी वह है जो सोया हुमा नहीं है। जो उपलब्धि होगी वह भी केवल बाहर की होगी। ज्ञान का सोया हमा है वह प्रज्ञानी है। कोई जागकर जी रहा है, प्रहकार भीतर है अगर वह छोड़ दिया जाता है तो जो कोई सो कर जी रहा है। अगर वह जागा हुप्रा है। कम उपलब्धि होगी नह भीतर की होगी। सम्पूर्ण दुनिया मे दो से-कम अपने पाप मे, तो उसके जीवन में ज्ञानीपना उतर ही मध्य चीजे है -- ज्ञान तथा धन । और दो ही तरह के पाएगा। अगर वह अपने पाप में सा रहा ह ता उसका लोग है--जान को इकट्ठा करने वाले प्रथवा धन को जिन्दगी में प्रसाधुता के सिवाय और कुछ भी नहीं हो इकट्रा करने वाले धन के संग्रह से तथा पद और सम्मान से सकता। गर भीनर अपने आप मे मोया हुमा है तो बाहर यह भाव होता है कि मैं कुछ हू । ज्ञान का भी महकार से साधु बना रह सकता है परन्तु वह बना हुप्रा साधु ही होता है कि मैं कुछ हूं। क्या यह नहीं हो सकता कि 'मैं' होगा। प्रोर जो बने हए सा है वे असाध से भी वदर चला जाए? यह हो सकता है। यह जो मैं है वह लत में होते हैं । परमात्मा और मनुष्य के बीच रुकावट है। जब जीव अपने
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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