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________________ પરબ प्राप को जानने लगेगा, अपने पाप मे जागृत हो जाएगा, एक-एक कदम को भावाज तक उसको सुनाई देगी। उससे तो यह दूसरा नकली 'मैं' एक दिन विलीन हो पूछा जाए कि वह नाला जिसको तुमने पार किया कितना जाएगा। इसे छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह अपने माप छूट लम्बा या तो वह बता सकता है कि इतने कदम लम्बा जाएगा। ऐसा लगेगा 'मैं' तो था ही नही। जिस था। जबकि शायद वह नहीं बता पाए कि उसके अपने दन यह दिखाई पड़ेगा कि वह 'मैं' नही हूँ, मकान में कितनी सीढी है जिन पर वह संकड़ों दफा चढ़उसी दिन दिखाई पड़ेगा कि वह जो है उसका नाम ही उतर चुका होगा। उस भाति का जागरण अपने माप मे परमात्मा है। होना चाहिए, केवल किसी एक क्रिया विशेष के लिए नहीं। जब जीव जागरण को प्राप्त होता है तो वह धर्म का सत्य की अनुभूति एक बात है मौर उसकी अभिव्यक्ति भी प्रापस होता है। जा जागरण का मार्ग है बही ज्ञान का दसरी बात । व्यक्ति यदि मात्र तप मोर सयम करता है तो मार्ग है। दमन का मार्ग ज्ञान का मार्ग नही। जागरण उसमें कोई प्रान्तरिक फर्क नही पड़ता केवल बाहरी भोगों के दमन का, मिथ्या माडम्बर का मार्ग नहा, व्यवस्था बदल जाती है। सवाल संयम मोर तप का नहीं वास्तविक जीवन का, ज्ञान का, मार्ग है। उसके प्रवर्तन है। सवाल है चेतना के रूपान्तरण का, चेतना के बदल मे सदाचरण के फूल खिलते है। अचेतन वासनामों का जाने का। चेतना के बदलने के लिए बाहरी कार्यक्रमो का प्रभाव होने से मक्ति होता है। सदाचरण सम्बन्धी भय कोई भी प्रर्थ नहो है। चेतना को बदलने के लिए भीतर नही, वास्तविक जीवन पैदा होता है। जाग्रत व्यक्ति किसी की मूछो का भागना पावश्यक है। प्रश्न उसी का है। प्रावरण को प्रोता नही है। उसमे अन्तर को क्रान्ति है। चतना क दो रूप है । एक मूछ पौर दूसरा पमूछ। वैसे उसके बाहर-भीतर अपने प्राप परिवर्तन हो जाता है। ही क्रिया के दो रूप है : सयम पोर प्रसयम । एक बाहरी जागरण से ज्ञान हो नहीं होता परिवतन भी होता है। दृष्टि है एक अतरग। ज्ञान की प्रवस्था अतरंग बात है असल में निरीक्षण ज्ञान लाता है और ज्ञान से परिवतन पोर माचरण की अवस्था बाहगे। जीव हर एक कार्य में, भाता है। उसो निरीक्षण स, जागरण से वासना की मृत्यु प्रत्येक स्थिति मे, चेन हो, जागृत हो, मूछित नही, इसी हो जाती है। पत. जागरण हो क्रान्ति है। इसलिए को अप्रमाद कहा गया है और जागते हुए भी, सोते हुए जागरण ही शुभ है। मूछित अवस्था प्रशुभ है क्रोध या भी भीतर जो एक मूछित प्रवस्था चल रही है, उसको काम मूर्छा ये ही जीव को पकहते है। असल मे तो मूर्छा प्रमाद कहा गया है। ही पाप है। शुभ और अशुभ का निर्णय न करें, बस दृष्टा इसकी फिक्र नहीं कि पाप का पुण्य मे कैसे बदलें, बन जायें, साक्षी बन जाएँ, देखने वाले बन जाएं । जैसे मैं हिंसा को अहिंसा मे कैस बदले, प्रसयम को सयम मे कैसे दूर खडा ह, जानने देखने के अतिरिक्त मेग और कोई बदलें, कठोरता को कोमलता म कैसे बदलें। सवाल यह प्रयोजन नही है। जैसे ही प्रयोजन प्रा जाता है, वंम ही नही है कि हम क्रिया को कैसे बदले। यदि कर्ता बदल निरीक्षण बन्द हो जाता है। जब कोई ऐसी जगह से जाता है तो क्रिया अपने प्राप बदल जाएगी क्योकि कर्ता गुजरता है जहाँ मरने का डर है, सकट का क्षण है तो उम हो तो क्रिया को करता है। कर्ता ही क्रिया करने में समर्थ भय के प्रति वह पूण जावत होता है। उसको अपने एक होता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली। पाप बह एक कदम का ज्ञान बना रहता है। कोई व्यक्कि ऐमो है जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता। पुण्य वह है जो एक सकरी सड़क से पार हो रहा हो जिम के दोनो तरफ ग्वाई सजग व्यक्ति का करना पड़ता है। कम को बदलने पर है। बर्फ जमी हुई है, पोह का महीना है, वह जानता है विचार नही करना है बल्कि कोशिश करनी है। चेतना कि अगर एक भी कदम टेढ़ा रखा गया तो नाल में चला को बदलन की। चेतना बदल जाती है तो कम भी बदल जाएगा और वर्फ से ठंडा हो जाएगा। वह जो भी कदम जाता है। जब जीव चेतना में जाग्रत होता है तो सयम रखेगा वह बड़ी सावधानी से रखेगा, जागते हुए रखेगा भोर के, दया के, करुणा के फूल खिलने लगते हैं और वास्तविक,
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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